धार्मिक गतिविधि/क्रिया का सबसे पहला प्रमाण 60,000 ई.पू. का है। हालांकि नृवंशशास्त्री औऱ इतिहासकार मानते हैं कि लगभग 20 लाख वर्ष पहले जब मनुष्य धरती पर आया तब से ही धर्म के कुछ प्रकार व्यवहार में आना शुरू हो गए थे। विशेषज्ञों का मानना है कि प्रागैतिहासिक धर्म की उत्पत्ति भय और प्राकृतिक आपदाओं जैसे तूफान, भूकंप, जन्म औऱ मृत्यु आदि के प्रति विस्मय के कारण हुई। मृत्यु के कारणों की व्याख्या करते हुए पराभौतिक शक्तियों (सुपरनेचुरल पावर्स) को मनुष्य ने अपने आसपास की दुनिया में खुद के ऊपर तरजीह दी।
धर्म और विज्ञान की पारस्परिक्ताधर्म के विकास में ही विज्ञान (जिस रूप में आज हम इसे देखते हैं) के विकास की जड़ें भी मौजूद हैं। यह बात अलग है कि धर्म औऱ विज्ञान अंतत: साथ-साथ नहीं चल सकते थे। दोनों का आपसी अलगाव इनकी प्रकृति में निहित था। यदि हम विश्व भर के प्रमुख धर्मों पर नजर दौड़ाएं, तो पाएंगे कि लगभग हर धर्म में तब तक वैज्ञानिक खोजों औऱ सिद्धांतो को बढ़ावा दिया गया, जब तक स्वयं धार्मिक मान्यताओं के लिए कोई खतरा पैदा नहीं हुआ।
विज्ञान का लक्ष्य अज्ञात को जानना है औऱ ज्यादातर मामलों में ध्रार्मिक विश्वास आज अज्ञात को ढकने का ही कार्य करते हैं। विज्ञान में "बिग बैंग" का सिद्धांत ब्रह्मांड की उत्पत्ति की सर्वाधिक संभव व्याख्या माना जाता है। जबकि हिंदू, ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, यहूदी जैसे प्रमुख धर्मों में विश्व की उत्पत्ति का श्रेय सर्वोच्च सत्ता (ईश्वर) को दिया जाता है। विज्ञान बताता है कि ब्रह्मांड की रचना एक बहुत बड़े विस्फोट के फलस्वरूप हुई।
जिस अर्थ में आज हम "विज्ञान" को लेते हैं, क्या उस परिभाषा की परिधि में वेद, उपनिषद, पुराण आदि को शामिल किया जा सकता है। बिलकुल नहीं। तो फिर वेद-पुराण में दरअसल क्या है? संपूर्ण वैदिक साहित्य के अंतर्गत वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद आते हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद मूलत: वेदों की व्याख्याएं हैं। ब्राह्मण ग्रंथ वेदों की कर्मकांडी और उपनिषद ज्ञानकांडी व्याख्याएं हैं। आरण्यकों में कर्मकांड और ज्ञानकांड के बीच का संक्रमण दिखता है।
ऋग्वेद को विभिन्न कुलों/परिवारों में प्रचलित स्तुतिपाठों का संग्रह माना जाता है।
यजुर्वेद कर्मकांड विषयक संहिता है।
सामवेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष ऋग्वेद के ही मंत्र हैं, लेकिन इसकी विशेषता यह है कि यह छंदोबद्ध है और इसका पाठ न होकर गायन होता है।
अथर्ववेद में जादू-टोना, झाड़-फूंक और तंत्र-मंत्र दिए गए हैं। उपनिषदों को वेदों का सार कहा जाता है। कर्मकांड के बजाय ज्ञानमार्गी व्याख्याएं होने के कारण उपनिषद अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। उपनिषद काल दरअसल ब्राह्मणों के वास्तविक बौद्धिक दौर का प्रतिनिधित्व करता है। अलबत्ता एक स्तर पर वेदों में प्रकृति में मौजूद रहस्यों को जानने की ललक दिखाई देती है। अथर्ववेद के तंत्र-मंत्र को चिकित्सा विज्ञान का आदि बिंदु माना जा सकता है।
मूलत: विभिन्न वैज्ञानिक अनुशासनों की उत्पत्ति धर्म के भीतर से ही हुई है। आज चिकिस्ता विज्ञान, भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, खगोल विज्ञान आदि का इतना अभूतपूर्व विकास हो चुका है कि इस स्तर पर धार्मिक रूढ़ियां और अंधविश्वास इनकी प्रगति को बाधित करते हुए प्रतित होते हैं।
सतत विकास के चलते धर्म इतना पीछे छूट चुका है कि अब इसकी कोई उपयोगिता या प्रासंगिकता नहीं रह गई है। फिर भी विभिन्न संसकृतियों में विज्ञान और धर्म का आपसी द्वंद आरंभ से चलता रहा है और अब भी जारी है। इस द्वंद की पृष्ठभूमि पर भारतीय संदर्भों में नजर डालना अनुचित नहीं होगा।
किसी समय विशेष में रचा गया साहित्य उस दौर में रह रहे समाज का आईना होता है, जिसमें उस समाज की राजनीति, संस्कृति, अर्थ-तंत्र औऱ विकास के विभिन्न उपादान शामिल होते हैं।
उपनिषद काल में जो एक खोज शुरू हुई थी, उसमें आगे चलकर नकारात्मक विकास (जो ऋग्वैदिक काल से ही आरंभ हो गया था, ऋग्वेद के
'पुरुष सुक्त' में सबसे पहले शूद्र की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है, जाहिर है इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है) दिखाई पड़ता है। यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म और राज्य सत्ता अपने अस्तित्व और सर्वोच्चता के लिए किस प्रकार एक-दूसरे पर आश्रित हो चुके थे। धर्म और राज्य सत्ता, दोनों ने इस प्रकार के अनुशासनों के विकास में योगदान दिया, जो किसी भी प्रकार से उनके लिए चुनौती नहीं बन सकते थे। ऐसे श्रम की मांग नहीं करते थे, जिसका उपयोग साधारण जन के लिए हो सकता। इसलिए गणित, खगोलशास्त्र, आयुर्वेद आदि का विकास तो हुआ, लेकिन ऐसा विकास नहीं हुआ जो शारीकिक श्रम को आसान बनाते हों। जिस कुलीन वर्ग को शिक्षा हासिल करने का अधिकार हासिल था, उसने तकनीकी विकास में कोई योगदान नहीं दिया, क्योंकि इसका उपयोग श्रमिक वर्ग आसानी से कर पाता और उसकी आर्थिक स्थिति में बदलाव आता। आर्थिक स्थिति में बदलाव आने से सामाजिक संबंधों में भी निश्चित रूप से बदलाव की भूमिका बनती और ब्राह्मणों की सर्वोच्चता के लिए निम्न वर्ग भी चुनौती बन जाता। सो हिंदू समाज पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए ब्राह्मण बुद्धिजीवी आध्यात्मिक चिंतन मनन में व्यस्त रहे। शारिरिक श्रम से ये वर्ग हमेशा दूर रहा।
इस प्रकार जिस हिंदू धर्म के भीतर से चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र, गणित जैसे अनुशासनों का जन्म हुआ, वहीं हिंदू धर्म नकारात्मक भूमिका भी निभाने लगा। ऐसा न होने पर चतुवर्ण व्यवस्था, जो हिंदू धर्म का लौह ढांचा है, को आघात पहुंचता और स्वयं हिंदू धर्म का अस्तित्व संकट में पड़ जाता। वैज्ञानिक विकास से समाज के निचले तबके को भी लाभ मिलता और उसकी आर्थिक स्थिति में सुधार होता, जिससे वह सामाजिक सोपानक्रम में भी उच्च स्थिति का दावा पेश करता। ऐसा होने पर हिंदू धर्म की बुनियाद हिल जाती। इसलिए ऐसा होने नहीं दिया गया (ब्राह्मण समाज इतना बौद्धिक हमेशा से रहा है)। अब हुआ यह कि समाज में असंतोष तो था ही, लोहे की खोज हो चुकी थी, जिससे अर्थ तंत्र में बदलाव आया। ब्राह्मणों से निचले तबके के लोग आर्थिक स्थिति में सुधार होने के कारण अपने सामाजिक दर्जे में सुधार की मांग करने लगे। हिंदू धर्म ने इसकी इजाजत कभी नहीं दी। परिणामस्वरूप बौद्ध और जैन धर्म जैसे आंदोलनों ने जन्म लिया। जो कार्य वैज्ञानिक विकास से सफल हो सकता था, वह नहीं हुआ। कारण कि वैज्ञानिक विकास ही नहीं हुआ। परिणास्वरूप एक धर्म के विरूद्ध दूसरे नए धर्म का विद्रोह हुआ। एक धर्म के विरूद्ध नए सुधारवादी धर्म की लड़ाई का अंतिम परिणाम असफलता ही हो सकता था। इन धार्मिक विद्रोहों का कुछ असर जरूर हुआ और आज तक महसूस किया जाता है। लेकिन यह एक धर्म के प्रति दूसरे धर्म का विद्रोह था, इसलिए इसे असफल होना ही था। बौद्ध मत दूर तक चला, लेकिन अन्य धर्मों/मतों/पंथों की तरह खुद विसंगतियों का शिकार हो गया। प्रछन्न बौद्ध शंकर ने हिंदू धर्म की पुनर्थापना की। हिंदू धर्म ने बुद्ध को विष्णु का दसवां अवतार मान लिया। एक समय ऐसा लगा कि ब्राह्मण बुद्धिजीवी बौद्ध मत को पचा ही गए हैं। विदेशों में बौद्ध मत का प्रचार-प्रसार अवश्य हुआ, लेकिन
"....अपनी ही जन्मभूमि से बौद्ध धर्म का लोप हो गया, केवल पूर्वोत्तर सीमा प्रदेश में ही कुछ अवशेष बचे रहे।" (दामोदर धर्मानंद कोसंबी, प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता, पृ.-12)कोई टकराव नहींयूरोप में जिस प्रकार धर्म और विज्ञान का टकराव दिखता है, वैसा भारत में नहीं मिलता। कारण साफ है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, प्रमुख रूप से हिंदू धर्म में इस प्रकार की शास्त्रसम्मत व्यवस्था की गई थी कि ऐसा कोई भी अनुशासन विकसित न हो जो धर्म और राज्य सत्ता के लिए चुनौती बन सके। फिर भी कबीले से सभ्य समाज की ओर बढ़ते हुए कुछ न कुछ वैज्ञानिक विकास अवश्य हुआ। (सिंधू से लेकर गुप्त काल, मध्य काल और आरंभिक आधुनिक काल तक कारीगरी, भवन निर्माण, शिल्प आदि के उदाहरण यहां लिए जा सकते हैं, जिसने मूल रूप से कुलीन वर्ग के विलासितापूर्ण जीवन को ही सुगम बनाया)।
धर्म ने किसी न किसी रूप में मनुष्य के जीवन को प्रागेतिहासिक काल से ही व्यवस्थित करने का काम किया। समाज को संस्थाबद्ध करना धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है। यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्म ने पश्चिमी संस्कृति को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित किया। विशेषकर इस्लाम ने मध्य-पूर्व की संस्कृति के विकास में अहम भूमिका निभाई। एशिया की संस्कृति को आकार देने वाले प्रमुख धर्म हिंदू, बौद्ध, कन्फ्यूशियस, शिंतो और ताओ रहे हैं।
मध्य युग में लगभग 500 ई. से 1500 ई. तक रोमन कैथोलिक चर्च का यूरोप पर प्रभुत्व रहा। भारत के हिंदू-मुसलमान संघर्ष के जैसा ही कुछ यूरोप में भी हुआ। कैथोलिक चर्च ने यहुदियों और मुसलमानों का उत्पीड़न किया। मुस्लिम और ईसाई जेहादियों (क्रूसेडर्स) द्वारा किया गया रक्तपात जग जाहिर है। चर्च ने उन लोगों को दंडित किया जो उसकी शिक्षाओं से असहमति रखते थे। 1415 में बोहेमियन धर्म सुधारक जान हस को पोप की सत्ता को चुनौती देने के अपराध में जिंदा जला दिया गया।
वैज्ञानिक खोजों के साथ ही चर्च की मान्यताओं को चुनौतियां पेश होने लगीं।
बाइबल के लेखकों ने हिब्रू सिद्धांत को अपनाया, जिसमें कहा गया है कि पृथ्वी चपटी है और एक गुंबद के ऊपर टिकी हुई है। साथ ही यह माना गया कि संपूर्ण ब्रह्मांड का केंद्र पृथ्वी है। हिंदू मिथक भी कुछ इसी प्रकार का है, जिसमें कहा गया है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है।
(सातवीं सदी में हुए गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त और वराहमिहिर का उल्लेख किया है। यह भी ज्ञात किया गया था कि पृथ्वी गोल है, लेकिन जिस प्रकार यूरोप में कुलीन वर्ग की भाषा लैटिन रही उसी प्रकार की स्थिति यहां संस्कृत भाषा के साथ रही। जनभाषा में ज्ञान प्राप्त करने से वंचित आम जन धार्मिक रूढ़ियों में फंसा रहा।)1530 में कापरनिकस का यह सिद्धांत प्रकाशित हुआ कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। कापरनिकस ने लैटिन भाषा में लिखा था, जो उस समय चर्च और कुलीन वर्ग की भाषा थी। चर्च ने इस सिद्धांत को बर्दाश्त किया, लेकिन 1632 में गैलीलियो ने कापरनिकस के सिद्धांत को मान्यता देते हुए उसे आम आदमी की जुबान इतालवी में सामने रख दिया। जनभाषा में यह तथ्य सामने आने से चर्च की मान्यताओं को आघात पहुंचा और गैलीलियो को आजीवन कारावास की सजा दे दी गई। ब्रूनो (1548-1600) को कापरनिकस के इस सिद्धांत का समर्थन करने के लिए कि पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है और अन्य ग्रहों की तरह सूर्य की परिक्रमा करने वाला एक ग्रह भर है, जला कर मार दिया गया। पोप एलेक्जेंडर पाल ने सूर्यकेंद्री सिद्धांत की भर्त्सना की और उन सभी पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया, जिनमें पृथ्वी की गति का समर्थन किया गया था।
रोजर बेकन (13वीं शताब्दी) को घड़ी और प्रकाश के अपवर्तन आदि प्रयोगों के लिए 14 साल जेल में रहना पड़ा। जान बेरिलान (14वीं शताब्दी) को अपने पास रसायन भट्टी और अन्य वैज्ञानिक उपकरण रखने के जुर्म में जेल में डाल दिया गया। एंटोनियो डि डोमिनियस (15वीं शताब्दी) को प्रकाश के गुणधर्म संबंधी प्रयोगों के लिए मार डाला गया।
पर विज्ञान का विकास रूका नहीं। 1859 में डार्विन की नेचुरल सलेक्शन थ्योरी (प्राकृतिक चयन का सिद्धांत) प्रकाशित हुई। डार्विन ने 'विकास' के सिद्धांत ने पिछली सभी धार्मिक मान्यताओं को पलट कर रख दिया।
इस प्रकार के अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनमें चर्च की मान्यताओं और वैज्ञानिक खोजों का टकराव स्पष्ट दिखाई देता है। धीरे-धीरे औद्योगिक क्रांति की पृष्ठभूमि बनी। लगातार एक के बाद एक आविष्कार होते चले गए। औद्योगिक वर्ग क्रमश: सत्ता प्राप्त कर रहा था। जनजीवन में पहले की तरह चर्च के प्रति आग्रह नहीं रहा। लेकिन इसके विपरित, जैसा कि पहले स्पष्ट किया गया है, भारतीय उपमहाद्वीप में परिस्थितियां एकदम भिन्न रहीं। प्राचीन काल की तरह मध्यकाल और आरंभिक आधुनिक युग तक भी भारत में धार्मिक अंधकार छाया हुआ था।
"भारत में तेरहवीं शताब्दी में उद्योग और व्यापार की दशा उसी प्रकार की थी, जिसे मार्क्स यूरोपीय पूंजीवाद में मशीन से भिन्न मैन्यूफेक्चरिंग युग कहते हैं। मार्क्स द्वारा पूर्व निर्धारित तीनों शर्तें मौजूद थीं - स्वतंत्र श्रम, स्वतंत्र पूंजी और संविदे की स्वतंत्रता (कैपिटल, भाग-2, अध्याय 6)। लेकिन उस विशेष स्थल पर मार्क्स इस तथ्य की उपेक्षा कर जाते हैं कि एक चौथा कारक - विचार स्वातंत्र्य और विज्ञान भी आवश्यक है। इस कारक की अनुपस्थिति ने मध्यकालीन भारत को मैन्यूफेक्चरिंग से मशीनी अवस्था तक पहुंचने नहीं दिया और अपनी विविधता के बावजूद उसकी सभी क्रांतियां एक मूलभूत तथ्य - उत्पादन के अपरिवर्तित उपकरणों तक सीमित रहीं।" (मध्यकालीन भारत, खंड-3, संपादक- इरफान हबीब, पृष्ठ- 27) साथ ही
"गांवों के कृषि उद्योग की तकनीक निम्न स्तर की थी। कृषि और विनिर्माण के लिए मात्र हस्तचालित औजारों की ही जानकारी थी। वायु और जलचालित चक्कियों का भी शायद ही कभी इस्तेमाल हुआ हो..." (भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि, ए आर देसाई, पृष्ठ-9) इसी प्रकार
"सदियों तक गावों की सामाजिक और बौद्धिक स्थिति अनुर्वर, अंधविश्वासपूर्ण, संकूचित और रूढ़ बनी रही। ये गांव आर्थिक प्रवाहहीनता, सामाजिक प्रतिक्रियावाद और सांस्कृतिक अंधेपन के अलग-अलग दुर्ग थे। लगभग सारा भारतीय समाज इन्हीं स्वायत्तशासी, स्वपर्याप्त, स्वसृत गांवों में केंद्रीभूत था और यह मानव समाज एक ही प्रकार के अंधविश्वासों, प्राचीन देव-देवियों, संकुचित ग्रामीण एवं जातीय चेतना और एक स्थाई दृष्टिबोध के शिकंजे में युगों तक पड़ा रहा।" (भा. रा. की सा. पृ., पृष्ठ-15)यह सर्वविदित तथ्य है कि इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति भारतीय संपदा के बूते ही संपन्न हुई। भारत से जो धन की निकासी हुई, उसने अनेक आविष्कारों को संभव बनाया, उनमें से एक भाप का इंजन भी है। भारत इस समय धार्मिक अंधविश्वासों के युग में जी रहा था। इस तथ्य को ए आर देसाई ने ब्रुक्स ऐडम्स की पुस्तक ला आफ सिविलाइजेशन ऐंड डिके के हवाले से स्पष्ट किया है:
"पलासी की लड़ाई 1757 में हुई और इशके बाद अभूतपूर्व तेजी से बहुत सारे परिवर्तन हुए। 1760 में तेज चलने वाली दरनी-भरनी का आविष्कार हुआ औऱ लोहा पिघलाने के जलावन के लिए लकड़ी के बदले कोयले का इस्तेमाल हुआ। 1764में हारग्रीव्स ने सूत कातने और उसे बटने वाली मशीन का आविष्कार किया और 1776 में क्रांपटन ने एख ही साथ कई सूत कातने और उन्हें बटने वाली मशीन का। 1785 में कार्टराइट ने मशीन से चलने वाले करघे का पेटेंट कराया और इन सबसे महत्वपूर्ण बात ये हुई कि 1768 में वाट ने भाप से चलने वाले इंजन को पूरा कर लिया।" (पृष्ठ-65)
"इस तरह जो औद्योगिक क्रांति आई उसके चलते इंग्लैंड में एक शक्तिशाली औद्योगिक वर्ग का जन्म हुआ। इस वर्ग ने धीरे-धीरे राज्य सत्ता पर अपना अधिकार जमाया....(पृष्ठ-65)"। इस प्रकार क्रमश: चर्च का प्रभुत्व कम होता चला गया।
धर्म-सत्ता की जयकारपश्चिम में धार्मिक प्रभुसत्ता का अंत एक बहुत ही स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत हुआ, जबकि भारत में ऐसा नहीं हुआ। विभिन्न धर्मों के अंधविश्वासों में जकड़े निर्धन भारत पर आधुनिकता एक प्रकार से थोप दी गई। यह कोई स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं थी। विडंबना ऐसी कि
"भारत में रेल के संपूर्ण प्रभाव का आंकलन करते हुए 1881 में मार्क्स ने एक पत्र लिखा था कि रेलें हिंदुओं के लिए बेकार हैं, हालांकि मार्क्स ने ही 1853 में जब पहला रेलमार्ग बिछाया जा रहा था, यह भविष्यवाणी की थी कि रेल व्यवस्था आधुनिक उद्योगों का अग्रदूत बनेगी" (आधुनिक भारत, सुमीत सरकार, पृष्ठ-58)।इसी तरह धार्मिक पिछड़ेपन और वैज्ञानिक उन्नति की खिचड़ी को लेकर आज का भारत भी किसी तरह घिसट रहा है। धर्म और विज्ञान का टकराव आज अधिक स्पष्ट है। ब्राह्मण पंथ में हमेशा से यह विचारधारा काम करती रही है कि अगर किसी विपरित विचार/मान्यता/सिद्धांत को मिटा न सको तो उसे अपने में समाहित कर पचा जाओ। ( बौद्ध धर्म इसका आदर्श उदाहरण है)। मीरा नंदा ने अपने लेख
व्हाई हिंदुत्व लव्स साइंस में इस बात का जवाब खोजने का प्रयास किया है कि भगवा कैंप में विज्ञान के प्रति प्रेम क्यों उमड़ता है। इस रहस्य को सुलझाने के लिए वैज्ञानिक होना जरूरी नहीं है। इस प्रेम के पीछे रहस्य ये है कि
"यज्ञों से लेकर हर प्रकार के देवी-देवता, अवतार, कर्म (पुनर्जन्म) और परामनोविज्ञान तक सभी कुछ के लिए वैदिक विज्ञान की प्रतिष्ठा पाने का दावा किया जाएगा। और हर प्रकार के विज्ञान - क्वांटम भौतिकी से लेकर आणविक जीव विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान - के बारे में बताया जाएगा कि वह पहले से ही वेदों में मौजूद है। अद्वैत वैदिक विज्ञान जो ईश्वर, तथ्यों और मूल्यों का संस्ळेषण कर सकता है, की पश्चिमी विकृति के तौर पर आधुनिक विज्ञान से पेश आया जाएगा। जो जख्म आत्महीन आधुनिक विज्ञान ने संपूर्ण विश्व को दिए हैं, उन्हें भरने के लिए भारत माता का उदघोष किया जाएगा।"इसके समर्थन में कुछ उदाहरण भी दिए गए हैं। जैसे कि 1998 में हुए परमाणु बम परिक्षण को धार्मिक रंग दिया गया। हिंदू विचारधारा ने दावा किया कि भगवान कृष्ण ने गीता में सर्वप्रथम इसकी जानकारी दी। बम को शक्ति और विज्ञान के परस्पर प्रतीकीकरण के द्वारा देवी-देवताओं को जाग्रत किया गया। यहां तक कि गणेश के सिर के पीछे आणविक आभामंडल और हाथों में बंदूकें लिए हुए दिखाया गया। इसरो जो भी उपग्रह स्थापित कर रहा है, उसके बारे में युवाओं को आने वाले समय में बताया जाएगा कि वे किस प्रकार सितारों की सहायता से अपने सौभाग्य और दुर्भाग्य को पढ़ सकते हैं। किस प्रकार समुचित कर्मकांडों के जरिए इन सितारों को अपने अनुकूल बना सकते हैं। संभवत: जीएसएलवी एक दिन जोड़ी मिलाने के काम को आसान करने के लिए इंटरनेट सिग्नल भी ढोएगा।
मूलत: आज वास्तविक विज्ञान और छद्म विज्ञान का द्वंद अधिक स्पष्ट है। कभी नाजियों ने भी
आर्यन साइंस की परिकल्पना की थी। इस परिकल्पना का परिणाम यहूदियों के नरसंहार और विध्वंस में हुआ। अब वैदिक विज्ञान की अंतिम परिणति क्या होगी, इसे समझा जा सकता है। वस्तुत: धर्म और विज्ञान का कोई सहसंबंध नहीं है। वैज्ञानिक विकास के आगे धर्म पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुका है। विभिन्न धार्मिक अंधविश्वासों, रुढ़ियों और उच्च-भ्रू तकनीक को साथ-साथ ढोते भारत को तय करना होगा कि वह क्या चाहता है। एक सभ्य समाज के लिए आवश्यक तर्कसम्मत वैज्ञानिक विकास या पूर्णत: अप्रासंगिक धर्म?
अध्ययन सामग्रीआदिकालीन भारत की व्याख्या- रोमिला थापर
आधुनिक भारत- सुमित सरकार
प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी
भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि- ए आर देसाई
यूरोप का इतिहास- पार्थसारथी गुप्ता
मध्यकालीन भारत- इरफान हबीब
भारतीय सामंतवाद- रामशरण शर्म
आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ माडर्न इंडिया- पर्सिवल स्पीयर
द वंडर दैट वाज इंडिया- ए एल बाशम
ए ब्रीफ हिस्ट्री आफ टाइम- स्टीफेन हाकिंग
व्हाई हिंदुत्वा लव्स साइंस- मीरा नंदा
साइंस ऐंड फ्रिडम-डी डी कोसंबी
प्रारंभिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास- रामशरण शर्मा