Thursday, January 7, 2010

इडियट्स के बीच में गब्बर सिंह

थ्री इडियट्स देखी। बहुत अच्छी लगी। 1992 में 'जो जीता वही सिकंदर' भी देखी थी। इस फिल्म का सच आज भी छोटे कस्बों, नगरों के मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों का सच है। 'थ्री इडियट्स', 'जो जीता वही सिकंदर' का एक्सटेंशन है। ये फिल्म आज के शहरी, कस्बाई हर युवा का सच है। दिक्कत बस एक ही है। इडियट्स के बीच में गब्बर सिंह आ गया है। बताया जा रहा है कि दस दिन में ही 'थ्री इडियट्स' ने शोले का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। ये किस के दिमाग की उपज है, पता नहीं। पहले अखबारों में पढ़ा, फिर टीवी पर देखा-सुना। पहले इस मसखरेपन पर हंसी आई, फिर सिर फोढ़ने का मन हुआ। मन ही मन हंसना एक किस्म की आत्मपीढ़ा का सुख लेने जैसा है। और अपना सिर फोढ़ने को भी स्वांत सुखाय ही समझिए - इससे किसी को फर्क पड़ने से रहा। दोनों ही कामों में नेगेटिव एनर्जी है। इसलिए लगा कि खुद पर इमोश्नल अत्याचार से बेहतर तो लिखना ही है।
'शोले' 1975 में बनीं। अगर ये कहूं कि उस वक्त किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसी फिल्म बनेगी, तो ये कहना गलत होगा। साहित्य के बाद फिल्मों में ही सबसे ज्यादा एक्सपेरिमेंट हुए हैं। सलीम-जावेद ने भी तो कल्पना ही की थी। उन्होंने हॉलीवुड की काऊ ब्वाय फिल्मों से आइडिया लिया और उसे भारतीय सांचे में ढालने की जादूगरी दिखाई। रमेश सिप्पी ने कहानी पर भरोसा किया और फिल्म बनाई। हां, उन्होंने जरूर कल्पना नहीं की होगी कि 'शोले' इतनी बढ़ी कल्ट हिट होगी। फिल्म हिट या फ्लॉप होने के बाद हर डायरेक्टर दो बातें ही कहता है। पहली, मुझे फिल्म की सफलता पर भरोसा था, लेकिन ये इतनी बढ़ी हिट होगी या सफलता के रिकॉर्ड तोड़ देगी मैंने सोचा भी नहीं था। दूसरा, मैंने बस एक अच्छी फिल्म बनाने की कोशिश की, फिल्म का हिट या फ्लॉप होना तो दर्शक के हाथ में है। या इससे जुड़ी कुछ और बातें, जैसे मैंने अपने समय से आगे की फिल्म बनाई है। फिल्म ने पैसा वसूल लिया है। म्यूजिक राइट्स से ही फिल्म की कीमत निकल गई है। सिनेमाहॉल में दर्शकों का पैसा तो बोनस है...वगैरहा-वगैरहा। मगर हम यहां दूसरे किस्म की फटीचर फिल्मों की बात नहीं कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं कल्ट हिट 'शोले' और इसके रिकॉर्ड तोड़ने का दावा करने वाली फिल्म 'थ्री इडियट्स' की।
'शोले' के 34 साल बाद रिलीज होने वाली फिल्म 'थ्री इडियट्स' के बारे में कहा गया है कि सिर्फ दस दिन में बॉक्स ऑफिस पर इसने करीब 250 करोड़ रुपए कमा लिए। फिल्म ने पहले 'गजनी' का और अब 'शोले' का रिकॉर्ड तोड़ दिया है और अब ये फिल्म सबसे सफल और इसलिए सबसे महान फिल्म बनने जा रही है। इस हास्यापद आंकड़े की पोल हम खोलेंगे, लेकिन पहले ये देखा जाए कि रिलीज होने के कुछ ही दिन के भीतर 'थ्री इडियट्स' को बॉलीवुड की सर्वकालीक महान (या हिट) फिल्मों में शामिल क्यों माना जाए। क्या समय कोई कसौटी नहीं है? वो कसौटी जिसकी अग्निपरिक्षा में शोले हर तरह से खरी उतरी। माफ कीजिएगा, जब पुरी दुनिया में कोई लेखक-डायरेक्टर या प्रोड्यूसर रिलीज होने से पहले ये दावा करने की हिम्मत नहीं दिखा सका कि उसकी फिल्म दुनिया की सबसे बड़ी हिट या हॉलीवुड, बॉलीवुड, टॉलीवुड...और भी न जाने कितने वुडों की सबसे बड़ी हिट साबित होगी, तो इस झूठे विजन के सहारे तथाकथित ट्रेड एनालिस्ट या समीक्षकों की ये घोषणा भी समझ में नहीं आती कि 'थ्री इडियट्स' हिंदी फिल्मी दुनिया की सबसे बड़ी कल्ट हिट होने वाली है।
'थ्री इडियट्स' के पक्ष में सिर्फ इसकी कमाई का आंकडा़ दिया जा रहा है। ये आंकड़ा देते हुए ये नहीं बताया जाता कि इस फिल्म के 1760 सिनेमा हॉल के लिए 1550 प्रिट देश में और विदेशों में 366 सिनेमा हॉल में 342 प्रिंट जारी किए गए। इस फिल्म की जबरदस्त मार्केटिंग की गई। और फिल्म का प्रमोशन अब तक जारी है। जबकि 15 अगस्त 1975 में शोले महज 40 प्रिंट के साथ मुंबई में रिलीज हुई थी। (दूसरे शहरों के आंकड़े नहीं हैं, पर सौ डेढ़ सौ प्रिंट से ज्यादा रिलीज नहीं हुए होंगे) रिलीज होते ही विद्वान समीक्षकों ने इसे फ्लॉप करार दे दिया। 'शोले' मार्केटिंग के बूते नहीं बल्कि वर्ड ऑफ माउथ के बूते चल निकली। इसलिए दस दिन में शोले से तुलना करना बेवकूफी कहा जाएगा। अब 'थ्री इडियट्स' के पहले ही दिन रिलीज हुए ऊपर दिए गए प्रिंट्स की संख्या से तुलना कीजिए। चौंतीस साल बाद भी 'शोले' के 1100 प्रिंट्स सर्कुलेशन में हैं, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। इसलिए 'शोले' से तुलना करने से पहले ये कुछ समय ये जानने के लिए जरूर लीजिए कि 'गदर', 'लगान', 'गजनी' की तरह 'थ्री इडियट्स' के कितने प्रिंट्स सर्कुलेशन में रहते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि कुछ समय बाद ये फिल्म टीवी पर दिखेगी। 'शोले' भी दिखी थी। मगर आज भी नगरों, कस्बों, देहातों और कहीं-कहीं शहरों में भी ये फिल्म धड़ल्ले से चल रही है। मगर टीवी पर आने के बाद 'थ्री इडियट्स' भी 'शोले' ही साबित होगी, ये समय ही तय करेगा। महंगाई की दर को एडजस्ट करने के बाद आज के हिसाब से शोले अब तक 7 अरब 68 करोड़ 81 लाख रुपए कमा चुकी है और आगे भी कमाती रहेगी। (साभार- en.wikipedia.org) 'शोले' मुंबई के मिनर्वा थियेटर में पांच साल से ज्यादा समय तक चली। 'शोले' ने पूरे भारत में साठ सिनेमा हॉल्स में गोल्डन जुबली मनाई। 'शोले' हिंदी फिल्म इतिहास की पहली फिल्म है जिसने देश के सौ सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली मनाई।
कई लोगों को 'थ्री इडियट्स' मील का पत्थर लगती है। कुछ हद तक है भी। लेकिन हकीकत यही है कि इससे पहले जो जीता वही सिकंदर बनीं और उसके एक्स्टेंशन के तौर पर 'थ्री इडियट्स' बनी। जो ज्यादा समझदारी से आज के युवा की और हमारे समाज की त्रासदी को दिखाती है। संदेश देती है ये कि जो करना या बनना चाहते हो उसमें काबिल बनों, कामयाबी खुद आपके पीछे आएगी। जाहिर है इस बेहतरीन निर्देशन, एक्टिंग के लिए इस फिल्म को कई मान-सम्मान और पुरस्कार मिलेंगे। (और आमिर खान पुरस्कार लेने नहीं जाएंगे) लेकिन तुलना करने से पहले ये भी देखिए कि 'शोले' को बीबीसी ने सदी की सबसे बड़ी फिल्म करार दिया। फिल्मफेयर अवॉर्ड्स में 'शोले' को पिछले पचास साल की सबसे बेहतर फिल्म करार दिया गया। ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट के सर्वे में 'शोले' को हिंदी की टॉप 10 फिल्मों में सर्वोच्च स्थान हासिल हुआ। ये सम्मान भी अपने आपम में एक रिकॉर्ड ही है। ये जरूर है कि 'शोले' के समय पायरेसी की समस्या नहीं थी। 'थ्री इडियट्स' के साथ पायरेसी भी जुड़ी है। लेकिन अब तक 'शोले' के कितनी पायरेटेट सीडी बाजार में आ चुकी होंगी, अगर इसका आंकड़ा मिले तो ये भी संभवत: एक रिकॉर्ड हो सकता है।
'शोले' का हर करेक्टर वेल डिफाइंड है। 'थ्री इडियट्स' का भी है। 'शोले' में किसका किरदार बड़ा है- धर्मेंद्र का, अमिताभ का, संजीव कुमार का, अमजद खान का हेमा मालिनी का या किसी और का। कहना मुश्किल है। इस पर अनंतकाल तक बहस हो सकती है। दूसरी ओर 'थ्री इडियट्स' में किसका किरदार बड़ा है। तो इसमें कहीं कोई बहस नहीं है। आमिर का किरदार ही सबसे बड़ा है। वही फिल्म के शुरू से आखिर तक केंद्र में हैं। 'शोले' शायद बॉलीवुड की पहली फिल्म है जिसके डॉयलॉग्स के कैसेट तक जबरदस्त बिके हैं। लेकिन क्या आपको 'थ्री इडियट्स' में आमिर के ऑल इज वेल के अलावा कोई और डायलॉग फिल्म देखने के कुछ दिन बाद याद आता है। नहीं न। तो फिर दिल पर हाथ रखिए और कहिए- 'शोले' के साथ आज भी ऑल इज वेल है।

Wednesday, September 24, 2008

वेदों के देश में विज्ञान का सत्य

धार्मिक गतिविधि/क्रिया का सबसे पहला प्रमाण 60,000 ई.पू. का है। हालांकि नृवंशशास्त्री औऱ इतिहासकार मानते हैं कि लगभग 20 लाख वर्ष पहले जब मनुष्य धरती पर आया तब से ही धर्म के कुछ प्रकार व्यवहार में आना शुरू हो गए थे। विशेषज्ञों का मानना है कि प्रागैतिहासिक धर्म की उत्पत्ति भय और प्राकृतिक आपदाओं जैसे तूफान, भूकंप, जन्म औऱ मृत्यु आदि के प्रति विस्मय के कारण हुई। मृत्यु के कारणों की व्याख्या करते हुए पराभौतिक शक्तियों (सुपरनेचुरल पावर्स) को मनुष्य ने अपने आसपास की दुनिया में खुद के ऊपर तरजीह दी।

धर्म और विज्ञान की पारस्परिक्ता
धर्म के विकास में ही विज्ञान (जिस रूप में आज हम इसे देखते हैं) के विकास की जड़ें भी मौजूद हैं। यह बात अलग है कि धर्म औऱ विज्ञान अंतत: साथ-साथ नहीं चल सकते थे। दोनों का आपसी अलगाव इनकी प्रकृति में निहित था। यदि हम विश्व भर के प्रमुख धर्मों पर नजर दौड़ाएं, तो पाएंगे कि लगभग हर धर्म में तब तक वैज्ञानिक खोजों औऱ सिद्धांतो को बढ़ावा दिया गया, जब तक स्वयं धार्मिक मान्यताओं के लिए कोई खतरा पैदा नहीं हुआ।
विज्ञान का लक्ष्य अज्ञात को जानना है औऱ ज्यादातर मामलों में ध्रार्मिक विश्वास आज अज्ञात को ढकने का ही कार्य करते हैं। विज्ञान में "बिग बैंग" का सिद्धांत ब्रह्मांड की उत्पत्ति की सर्वाधिक संभव व्याख्या माना जाता है। जबकि हिंदू, ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, यहूदी जैसे प्रमुख धर्मों में विश्व की उत्पत्ति का श्रेय सर्वोच्च सत्ता (ईश्वर) को दिया जाता है। विज्ञान बताता है कि ब्रह्मांड की रचना एक बहुत बड़े विस्फोट के फलस्वरूप हुई।
जिस अर्थ में आज हम "विज्ञान" को लेते हैं, क्या उस परिभाषा की परिधि में वेद, उपनिषद, पुराण आदि को शामिल किया जा सकता है। बिलकुल नहीं। तो फिर वेद-पुराण में दरअसल क्या है? संपूर्ण वैदिक साहित्य के अंतर्गत वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद आते हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद मूलत: वेदों की व्याख्याएं हैं। ब्राह्मण ग्रंथ वेदों की कर्मकांडी और उपनिषद ज्ञानकांडी व्याख्याएं हैं। आरण्यकों में कर्मकांड और ज्ञानकांड के बीच का संक्रमण दिखता है। ऋग्वेद को विभिन्न कुलों/परिवारों में प्रचलित स्तुतिपाठों का संग्रह माना जाता है। यजुर्वेद कर्मकांड विषयक संहिता है। सामवेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष ऋग्वेद के ही मंत्र हैं, लेकिन इसकी विशेषता यह है कि यह छंदोबद्ध है और इसका पाठ न होकर गायन होता है। अथर्ववेद में जादू-टोना, झाड़-फूंक और तंत्र-मंत्र दिए गए हैं। उपनिषदों को वेदों का सार कहा जाता है। कर्मकांड के बजाय ज्ञानमार्गी व्याख्याएं होने के कारण उपनिषद अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। उपनिषद काल दरअसल ब्राह्मणों के वास्तविक बौद्धिक दौर का प्रतिनिधित्व करता है। अलबत्ता एक स्तर पर वेदों में प्रकृति में मौजूद रहस्यों को जानने की ललक दिखाई देती है। अथर्ववेद के तंत्र-मंत्र को चिकित्सा विज्ञान का आदि बिंदु माना जा सकता है।
मूलत: विभिन्न वैज्ञानिक अनुशासनों की उत्पत्ति धर्म के भीतर से ही हुई है। आज चिकिस्ता विज्ञान, भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, खगोल विज्ञान आदि का इतना अभूतपूर्व विकास हो चुका है कि इस स्तर पर धार्मिक रूढ़ियां और अंधविश्वास इनकी प्रगति को बाधित करते हुए प्रतित होते हैं। सतत विकास के चलते धर्म इतना पीछे छूट चुका है कि अब इसकी कोई उपयोगिता या प्रासंगिकता नहीं रह गई है। फिर भी विभिन्न संसकृतियों में विज्ञान और धर्म का आपसी द्वंद आरंभ से चलता रहा है और अब भी जारी है। इस द्वंद की पृष्ठभूमि पर भारतीय संदर्भों में नजर डालना अनुचित नहीं होगा।
किसी समय विशेष में रचा गया साहित्य उस दौर में रह रहे समाज का आईना होता है, जिसमें उस समाज की राजनीति, संस्कृति, अर्थ-तंत्र औऱ विकास के विभिन्न उपादान शामिल होते हैं।
उपनिषद काल में जो एक खोज शुरू हुई थी, उसमें आगे चलकर नकारात्मक विकास (जो ऋग्वैदिक काल से ही आरंभ हो गया था, ऋग्वेद के 'पुरुष सुक्त' में सबसे पहले शूद्र की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है, जाहिर है इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है) दिखाई पड़ता है। यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म और राज्य सत्ता अपने अस्तित्व और सर्वोच्चता के लिए किस प्रकार एक-दूसरे पर आश्रित हो चुके थे। धर्म और राज्य सत्ता, दोनों ने इस प्रकार के अनुशासनों के विकास में योगदान दिया, जो किसी भी प्रकार से उनके लिए चुनौती नहीं बन सकते थे। ऐसे श्रम की मांग नहीं करते थे, जिसका उपयोग साधारण जन के लिए हो सकता। इसलिए गणित, खगोलशास्त्र, आयुर्वेद आदि का विकास तो हुआ, लेकिन ऐसा विकास नहीं हुआ जो शारीकिक श्रम को आसान बनाते हों। जिस कुलीन वर्ग को शिक्षा हासिल करने का अधिकार हासिल था, उसने तकनीकी विकास में कोई योगदान नहीं दिया, क्योंकि इसका उपयोग श्रमिक वर्ग आसानी से कर पाता और उसकी आर्थिक स्थिति में बदलाव आता। आर्थिक स्थिति में बदलाव आने से सामाजिक संबंधों में भी निश्चित रूप से बदलाव की भूमिका बनती और ब्राह्मणों की सर्वोच्चता के लिए निम्न वर्ग भी चुनौती बन जाता। सो हिंदू समाज पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए ब्राह्मण बुद्धिजीवी आध्यात्मिक चिंतन मनन में व्यस्त रहे। शारिरिक श्रम से ये वर्ग हमेशा दूर रहा।
इस प्रकार जिस हिंदू धर्म के भीतर से चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र, गणित जैसे अनुशासनों का जन्म हुआ, वहीं हिंदू धर्म नकारात्मक भूमिका भी निभाने लगा। ऐसा न होने पर चतुवर्ण व्यवस्था, जो हिंदू धर्म का लौह ढांचा है, को आघात पहुंचता और स्वयं हिंदू धर्म का अस्तित्व संकट में पड़ जाता। वैज्ञानिक विकास से समाज के निचले तबके को भी लाभ मिलता और उसकी आर्थिक स्थिति में सुधार होता, जिससे वह सामाजिक सोपानक्रम में भी उच्च स्थिति का दावा पेश करता। ऐसा होने पर हिंदू धर्म की बुनियाद हिल जाती। इसलिए ऐसा होने नहीं दिया गया (ब्राह्मण समाज इतना बौद्धिक हमेशा से रहा है)। अब हुआ यह कि समाज में असंतोष तो था ही, लोहे की खोज हो चुकी थी, जिससे अर्थ तंत्र में बदलाव आया। ब्राह्मणों से निचले तबके के लोग आर्थिक स्थिति में सुधार होने के कारण अपने सामाजिक दर्जे में सुधार की मांग करने लगे। हिंदू धर्म ने इसकी इजाजत कभी नहीं दी। परिणामस्वरूप बौद्ध और जैन धर्म जैसे आंदोलनों ने जन्म लिया। जो कार्य वैज्ञानिक विकास से सफल हो सकता था, वह नहीं हुआ। कारण कि वैज्ञानिक विकास ही नहीं हुआ। परिणास्वरूप एक धर्म के विरूद्ध दूसरे नए धर्म का विद्रोह हुआ। एक धर्म के विरूद्ध नए सुधारवादी धर्म की लड़ाई का अंतिम परिणाम असफलता ही हो सकता था। इन धार्मिक विद्रोहों का कुछ असर जरूर हुआ और आज तक महसूस किया जाता है। लेकिन यह एक धर्म के प्रति दूसरे धर्म का विद्रोह था, इसलिए इसे असफल होना ही था। बौद्ध मत दूर तक चला, लेकिन अन्य धर्मों/मतों/पंथों की तरह खुद विसंगतियों का शिकार हो गया। प्रछन्न बौद्ध शंकर ने हिंदू धर्म की पुनर्थापना की। हिंदू धर्म ने बुद्ध को विष्णु का दसवां अवतार मान लिया। एक समय ऐसा लगा कि ब्राह्मण बुद्धिजीवी बौद्ध मत को पचा ही गए हैं। विदेशों में बौद्ध मत का प्रचार-प्रसार अवश्य हुआ, लेकिन "....अपनी ही जन्मभूमि से बौद्ध धर्म का लोप हो गया, केवल पूर्वोत्तर सीमा प्रदेश में ही कुछ अवशेष बचे रहे।" (दामोदर धर्मानंद कोसंबी, प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता, पृ.-12)

कोई टकराव नहीं
यूरोप में जिस प्रकार धर्म और विज्ञान का टकराव दिखता है, वैसा भारत में नहीं मिलता। कारण साफ है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, प्रमुख रूप से हिंदू धर्म में इस प्रकार की शास्त्रसम्मत व्यवस्था की गई थी कि ऐसा कोई भी अनुशासन विकसित न हो जो धर्म और राज्य सत्ता के लिए चुनौती बन सके। फिर भी कबीले से सभ्य समाज की ओर बढ़ते हुए कुछ न कुछ वैज्ञानिक विकास अवश्य हुआ। (सिंधू से लेकर गुप्त काल, मध्य काल और आरंभिक आधुनिक काल तक कारीगरी, भवन निर्माण, शिल्प आदि के उदाहरण यहां लिए जा सकते हैं, जिसने मूल रूप से कुलीन वर्ग के विलासितापूर्ण जीवन को ही सुगम बनाया)।
धर्म ने किसी न किसी रूप में मनुष्य के जीवन को प्रागेतिहासिक काल से ही व्यवस्थित करने का काम किया। समाज को संस्थाबद्ध करना धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है। यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्म ने पश्चिमी संस्कृति को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित किया। विशेषकर इस्लाम ने मध्य-पूर्व की संस्कृति के विकास में अहम भूमिका निभाई। एशिया की संस्कृति को आकार देने वाले प्रमुख धर्म हिंदू, बौद्ध, कन्फ्यूशियस, शिंतो और ताओ रहे हैं।
मध्य युग में लगभग 500 ई. से 1500 ई. तक रोमन कैथोलिक चर्च का यूरोप पर प्रभुत्व रहा। भारत के हिंदू-मुसलमान संघर्ष के जैसा ही कुछ यूरोप में भी हुआ। कैथोलिक चर्च ने यहुदियों और मुसलमानों का उत्पीड़न किया। मुस्लिम और ईसाई जेहादियों (क्रूसेडर्स) द्वारा किया गया रक्तपात जग जाहिर है। चर्च ने उन लोगों को दंडित किया जो उसकी शिक्षाओं से असहमति रखते थे। 1415 में बोहेमियन धर्म सुधारक जान हस को पोप की सत्ता को चुनौती देने के अपराध में जिंदा जला दिया गया।
वैज्ञानिक खोजों के साथ ही चर्च की मान्यताओं को चुनौतियां पेश होने लगीं।
बाइबल के लेखकों ने हिब्रू सिद्धांत को अपनाया, जिसमें कहा गया है कि पृथ्वी चपटी है और एक गुंबद के ऊपर टिकी हुई है। साथ ही यह माना गया कि संपूर्ण ब्रह्मांड का केंद्र पृथ्वी है। हिंदू मिथक भी कुछ इसी प्रकार का है, जिसमें कहा गया है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है। (सातवीं सदी में हुए गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त और वराहमिहिर का उल्लेख किया है। यह भी ज्ञात किया गया था कि पृथ्वी गोल है, लेकिन जिस प्रकार यूरोप में कुलीन वर्ग की भाषा लैटिन रही उसी प्रकार की स्थिति यहां संस्कृत भाषा के साथ रही। जनभाषा में ज्ञान प्राप्त करने से वंचित आम जन धार्मिक रूढ़ियों में फंसा रहा।)
1530 में कापरनिकस का यह सिद्धांत प्रकाशित हुआ कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। कापरनिकस ने लैटिन भाषा में लिखा था, जो उस समय चर्च और कुलीन वर्ग की भाषा थी। चर्च ने इस सिद्धांत को बर्दाश्त किया, लेकिन 1632 में गैलीलियो ने कापरनिकस के सिद्धांत को मान्यता देते हुए उसे आम आदमी की जुबान इतालवी में सामने रख दिया। जनभाषा में यह तथ्य सामने आने से चर्च की मान्यताओं को आघात पहुंचा और गैलीलियो को आजीवन कारावास की सजा दे दी गई। ब्रूनो (1548-1600) को कापरनिकस के इस सिद्धांत का समर्थन करने के लिए कि पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है और अन्य ग्रहों की तरह सूर्य की परिक्रमा करने वाला एक ग्रह भर है, जला कर मार दिया गया। पोप एलेक्जेंडर पाल ने सूर्यकेंद्री सिद्धांत की भर्त्सना की और उन सभी पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया, जिनमें पृथ्वी की गति का समर्थन किया गया था।
रोजर बेकन (13वीं शताब्दी) को घड़ी और प्रकाश के अपवर्तन आदि प्रयोगों के लिए 14 साल जेल में रहना पड़ा। जान बेरिलान (14वीं शताब्दी) को अपने पास रसायन भट्टी और अन्य वैज्ञानिक उपकरण रखने के जुर्म में जेल में डाल दिया गया। एंटोनियो डि डोमिनियस (15वीं शताब्दी) को प्रकाश के गुणधर्म संबंधी प्रयोगों के लिए मार डाला गया।
पर विज्ञान का विकास रूका नहीं। 1859 में डार्विन की नेचुरल सलेक्शन थ्योरी (प्राकृतिक चयन का सिद्धांत) प्रकाशित हुई। डार्विन ने 'विकास' के सिद्धांत ने पिछली सभी धार्मिक मान्यताओं को पलट कर रख दिया।
इस प्रकार के अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनमें चर्च की मान्यताओं और वैज्ञानिक खोजों का टकराव स्पष्ट दिखाई देता है। धीरे-धीरे औद्योगिक क्रांति की पृष्ठभूमि बनी। लगातार एक के बाद एक आविष्कार होते चले गए। औद्योगिक वर्ग क्रमश: सत्ता प्राप्त कर रहा था। जनजीवन में पहले की तरह चर्च के प्रति आग्रह नहीं रहा। लेकिन इसके विपरित, जैसा कि पहले स्पष्ट किया गया है, भारतीय उपमहाद्वीप में परिस्थितियां एकदम भिन्न रहीं। प्राचीन काल की तरह मध्यकाल और आरंभिक आधुनिक युग तक भी भारत में धार्मिक अंधकार छाया हुआ था। "भारत में तेरहवीं शताब्दी में उद्योग और व्यापार की दशा उसी प्रकार की थी, जिसे मार्क्स यूरोपीय पूंजीवाद में मशीन से भिन्न मैन्यूफेक्चरिंग युग कहते हैं। मार्क्स द्वारा पूर्व निर्धारित तीनों शर्तें मौजूद थीं - स्वतंत्र श्रम, स्वतंत्र पूंजी और संविदे की स्वतंत्रता (कैपिटल, भाग-2, अध्याय 6)। लेकिन उस विशेष स्थल पर मार्क्स इस तथ्य की उपेक्षा कर जाते हैं कि एक चौथा कारक - विचार स्वातंत्र्य और विज्ञान भी आवश्यक है। इस कारक की अनुपस्थिति ने मध्यकालीन भारत को मैन्यूफेक्चरिंग से मशीनी अवस्था तक पहुंचने नहीं दिया और अपनी विविधता के बावजूद उसकी सभी क्रांतियां एक मूलभूत तथ्य - उत्पादन के अपरिवर्तित उपकरणों तक सीमित रहीं।" (मध्यकालीन भारत, खंड-3, संपादक- इरफान हबीब, पृष्ठ- 27) साथ ही "गांवों के कृषि उद्योग की तकनीक निम्न स्तर की थी। कृषि और विनिर्माण के लिए मात्र हस्तचालित औजारों की ही जानकारी थी। वायु और जलचालित चक्कियों का भी शायद ही कभी इस्तेमाल हुआ हो..." (भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि, ए आर देसाई, पृष्ठ-9) इसी प्रकार "सदियों तक गावों की सामाजिक और बौद्धिक स्थिति अनुर्वर, अंधविश्वासपूर्ण, संकूचित और रूढ़ बनी रही। ये गांव आर्थिक प्रवाहहीनता, सामाजिक प्रतिक्रियावाद और सांस्कृतिक अंधेपन के अलग-अलग दुर्ग थे। लगभग सारा भारतीय समाज इन्हीं स्वायत्तशासी, स्वपर्याप्त, स्वसृत गांवों में केंद्रीभूत था और यह मानव समाज एक ही प्रकार के अंधविश्वासों, प्राचीन देव-देवियों, संकुचित ग्रामीण एवं जातीय चेतना और एक स्थाई दृष्टिबोध के शिकंजे में युगों तक पड़ा रहा।" (भा. रा. की सा. पृ., पृष्ठ-15)
यह सर्वविदित तथ्य है कि इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति भारतीय संपदा के बूते ही संपन्न हुई। भारत से जो धन की निकासी हुई, उसने अनेक आविष्कारों को संभव बनाया, उनमें से एक भाप का इंजन भी है। भारत इस समय धार्मिक अंधविश्वासों के युग में जी रहा था। इस तथ्य को ए आर देसाई ने ब्रुक्स ऐडम्स की पुस्तक ला आफ सिविलाइजेशन ऐंड डिके के हवाले से स्पष्ट किया है: "पलासी की लड़ाई 1757 में हुई और इशके बाद अभूतपूर्व तेजी से बहुत सारे परिवर्तन हुए। 1760 में तेज चलने वाली दरनी-भरनी का आविष्कार हुआ औऱ लोहा पिघलाने के जलावन के लिए लकड़ी के बदले कोयले का इस्तेमाल हुआ। 1764में हारग्रीव्स ने सूत कातने और उसे बटने वाली मशीन का आविष्कार किया और 1776 में क्रांपटन ने एख ही साथ कई सूत कातने और उन्हें बटने वाली मशीन का। 1785 में कार्टराइट ने मशीन से चलने वाले करघे का पेटेंट कराया और इन सबसे महत्वपूर्ण बात ये हुई कि 1768 में वाट ने भाप से चलने वाले इंजन को पूरा कर लिया।" (पृष्ठ-65)
"इस तरह जो औद्योगिक क्रांति आई उसके चलते इंग्लैंड में एक शक्तिशाली औद्योगिक वर्ग का जन्म हुआ। इस वर्ग ने धीरे-धीरे राज्य सत्ता पर अपना अधिकार जमाया....(पृष्ठ-65)"।
इस प्रकार क्रमश: चर्च का प्रभुत्व कम होता चला गया।

धर्म-सत्ता की जयकार
पश्चिम में धार्मिक प्रभुसत्ता का अंत एक बहुत ही स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत हुआ, जबकि भारत में ऐसा नहीं हुआ। विभिन्न धर्मों के अंधविश्वासों में जकड़े निर्धन भारत पर आधुनिकता एक प्रकार से थोप दी गई। यह कोई स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं थी। विडंबना ऐसी कि "भारत में रेल के संपूर्ण प्रभाव का आंकलन करते हुए 1881 में मार्क्स ने एक पत्र लिखा था कि रेलें हिंदुओं के लिए बेकार हैं, हालांकि मार्क्स ने ही 1853 में जब पहला रेलमार्ग बिछाया जा रहा था, यह भविष्यवाणी की थी कि रेल व्यवस्था आधुनिक उद्योगों का अग्रदूत बनेगी" (आधुनिक भारत, सुमीत सरकार, पृष्ठ-58)।
इसी तरह धार्मिक पिछड़ेपन और वैज्ञानिक उन्नति की खिचड़ी को लेकर आज का भारत भी किसी तरह घिसट रहा है। धर्म और विज्ञान का टकराव आज अधिक स्पष्ट है। ब्राह्मण पंथ में हमेशा से यह विचारधारा काम करती रही है कि अगर किसी विपरित विचार/मान्यता/सिद्धांत को मिटा न सको तो उसे अपने में समाहित कर पचा जाओ। ( बौद्ध धर्म इसका आदर्श उदाहरण है)। मीरा नंदा ने अपने लेख व्हाई हिंदुत्व लव्स साइंस में इस बात का जवाब खोजने का प्रयास किया है कि भगवा कैंप में विज्ञान के प्रति प्रेम क्यों उमड़ता है। इस रहस्य को सुलझाने के लिए वैज्ञानिक होना जरूरी नहीं है। इस प्रेम के पीछे रहस्य ये है कि "यज्ञों से लेकर हर प्रकार के देवी-देवता, अवतार, कर्म (पुनर्जन्म) और परामनोविज्ञान तक सभी कुछ के लिए वैदिक विज्ञान की प्रतिष्ठा पाने का दावा किया जाएगा। और हर प्रकार के विज्ञान - क्वांटम भौतिकी से लेकर आणविक जीव विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान - के बारे में बताया जाएगा कि वह पहले से ही वेदों में मौजूद है। अद्वैत वैदिक विज्ञान जो ईश्वर, तथ्यों और मूल्यों का संस्ळेषण कर सकता है, की पश्चिमी विकृति के तौर पर आधुनिक विज्ञान से पेश आया जाएगा। जो जख्म आत्महीन आधुनिक विज्ञान ने संपूर्ण विश्व को दिए हैं, उन्हें भरने के लिए भारत माता का उदघोष किया जाएगा।"
इसके समर्थन में कुछ उदाहरण भी दिए गए हैं। जैसे कि 1998 में हुए परमाणु बम परिक्षण को धार्मिक रंग दिया गया। हिंदू विचारधारा ने दावा किया कि भगवान कृष्ण ने गीता में सर्वप्रथम इसकी जानकारी दी। बम को शक्ति और विज्ञान के परस्पर प्रतीकीकरण के द्वारा देवी-देवताओं को जाग्रत किया गया। यहां तक कि गणेश के सिर के पीछे आणविक आभामंडल और हाथों में बंदूकें लिए हुए दिखाया गया। इसरो जो भी उपग्रह स्थापित कर रहा है, उसके बारे में युवाओं को आने वाले समय में बताया जाएगा कि वे किस प्रकार सितारों की सहायता से अपने सौभाग्य और दुर्भाग्य को पढ़ सकते हैं। किस प्रकार समुचित कर्मकांडों के जरिए इन सितारों को अपने अनुकूल बना सकते हैं। संभवत: जीएसएलवी एक दिन जोड़ी मिलाने के काम को आसान करने के लिए इंटरनेट सिग्नल भी ढोएगा।
मूलत: आज वास्तविक विज्ञान और छद्म विज्ञान का द्वंद अधिक स्पष्ट है। कभी नाजियों ने भी आर्यन साइंस की परिकल्पना की थी। इस परिकल्पना का परिणाम यहूदियों के नरसंहार और विध्वंस में हुआ। अब वैदिक विज्ञान की अंतिम परिणति क्या होगी, इसे समझा जा सकता है। वस्तुत: धर्म और विज्ञान का कोई सहसंबंध नहीं है। वैज्ञानिक विकास के आगे धर्म पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुका है। विभिन्न धार्मिक अंधविश्वासों, रुढ़ियों और उच्च-भ्रू तकनीक को साथ-साथ ढोते भारत को तय करना होगा कि वह क्या चाहता है। एक सभ्य समाज के लिए आवश्यक तर्कसम्मत वैज्ञानिक विकास या पूर्णत: अप्रासंगिक धर्म?

अध्ययन सामग्री
आदिकालीन भारत की व्याख्या- रोमिला थापर
आधुनिक भारत- सुमित सरकार
प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी
भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि- ए आर देसाई
यूरोप का इतिहास- पार्थसारथी गुप्ता
मध्यकालीन भारत- इरफान हबीब
भारतीय सामंतवाद- रामशरण शर्म
आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ माडर्न इंडिया- पर्सिवल स्पीयर
द वंडर दैट वाज इंडिया- ए एल बाशम
ए ब्रीफ हिस्ट्री आफ टाइम- स्टीफेन हाकिंग
व्हाई हिंदुत्वा लव्स साइंस- मीरा नंदा
साइंस ऐंड फ्रिडम-डी डी कोसंबी
प्रारंभिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास- रामशरण शर्मा


Saturday, September 13, 2008

टीवी, हिंदी, उपभोक्ता और बाजार

सूचना क्रांति कब की हो चुकी। बुद्धू बक्सा अब समझदार हो गया है (हालांकि अभी और समझदार होने की जरूरत है, ये समझदारी का संक्रमण काल है)। टीवी (इसमें हर तरह के चैनल शामिल हैं (अश्लील फिल्में दिखाने वाले चैनल भी) ने सूचना क्रांति में अहम भूमिका निभाई है। हिंदी का खूब प्रचार-प्रसार हुआ है। लेकिन पाठक ये समझ लें कि सबकुछ बाजार से तय होता है। भूरे साहबों की काऊ बेल्ट (इसका अर्थ नहीं लिखना चाहता, मुझे इससे नफरत है) की हिंदी सब पर भारी है। सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग यहीं से उभरा है। इसे नजरअंदाज करने का मतलब घाटा सहना है। तो बाजार ने हिंदी को कमोबेश कुछ ज्यादा अपनाया, लेकिन अपने सबकुछ अपने हिसाब से किया, और हमने ऐसा होने दिया। प्रिंट हो या टीवी कोई भी बाजार को नजरअंदाज नहीं कर सकता। नजरअंदाज करेगा तो उसकी लुटिया डूब जाएगी। वो अंतरराष्ट्रीय से राष्ट्रीय फिर स्थानीय...और फिर गायब हो या गायब होने के कगार पर झूलता रहेगा। मुझे भरोसा है कि आप इसका मतलब समझते हैं।
जानकार बाजार को ऐतिहासिक प्रक्रिया मानते हैं। ये इस बात की स्विकारोक्ती है की बाजार का अस्तित्व पहले भी रहा है और आगे भी रहेगा। पहले पहल व्यापार के साक्ष्य हड़प्पा में मिलते हैं यानी बाजार के भी। लेकिन बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। औद्योगिक क्रांति के बाद से दुनिया करीब आनी शुरू हुई। अब इसका उत्तरकाल चल रहा है। इसकी बहुत स्पष्ट विचारधारा है, जो आक्रामक तीव्रता लिए हुए है। बाजार होगा तो उपभोक्ता और उत्पादक भी होंगे। लेकिन बाजार की सर्वोच्चता व्यक्ति को मात्र उपभोक्ता में बदलने को तैयार है।
भारत में भविष्य का उपभोक्तावादी समाज कैसा होगा, इसके बीज वर्तमान में मौजूद हैं। आजादी से ठीक पहले और बाद का इतिहास इसमें हमारी सहायता कर सकता है। यह तो स्पष्ट ही है कि उपभोक्तावादी समाज में भूमंडलीय नागरिक महत्वपूर्ण होंगे। ये सत्ता-व्यवस्था के संचालक भी होंगे, लेकिन ये नागरिक "वसुधैव कुटुंबकम" का कोई मिथकीय आदर्श नहीं होंगे। भूमंडलीकरण अंतत: हिंदुस्तानियत की भावना को खा जाएगा और क्षेत्रीय अस्मिता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो उठेगा। जवाहरलाल नेहरू के मिश्रित रक्त की संतान होने का आधुनिक आदर्श पिलपिलाने लगेगा। हालांकि समाज में मिश्रित संताने, संबंध बहुत आम होंगे, जो रूढ़ियों का नाश करेंगे। लेकिन इतने आम होंगे कि आने वाली पीढ़ी अपने ग्लोबलपने से ऊबकर बल्कि त्रस्त होकर अंतिम रूप से क्षेत्रियता में अपनी पहचान ढूंढेगी। भूमंडलीय नागरिक होने के बावजूद भारतीय होना कम औऱ गढ़वाली, पंजाबी, बिहारी, कैराली.....होना अधिक महत्व पा जाएगा। इसकी शुरूआत हो चुकी है। लेकिन क्षेत्रियता का संबंध कहीं न कहीं से राष्ट्रवाद से भी जुड़ता है।
उदाहरण के लिए पत्रकार मार्क टुली ने इतिहासवत्ता रवींद्र कुमार के हवाले से अपनी पुस्तक फ्राम राज टू राजीव में लिखा-- "पटेल बातें सैधांतिक और संगठनात्मक तौर पर जवाहरलाल नेहरू की तुलना में गांधी के अधिक करीब थे। लेकिन गांधी ने पूरे विवेक से यह महसूस किया कि उनका उत्तराधिकारी होने के लिे केवल यही आवश्यक शर्त नहीं है। भारत का कोई भी नेता केवल एक वर्ग का नेतृत्व नहीं कर सकता। खेतिहर वर्ग के साथ अंतरंगता स्थापित होना ही आवश्यक शर्त नहीं है। हमारे समाज के दूसरे वर्गों में भी जवाहर के संपर्क थे। उदाहरण के लिए बीस औऱ तीस के दशक की युवा पीढ़ी और बुद्दिजीवी वर्ग के साथ उनके विशिष्ट संबंध थे। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अगर कोई नेता किसी एख क्षेत्र विशेष से निकट संबंध रखता है तो वह अखिल भारतीय नेता नहीं हो सकता। जवाहर लाल एक ऐसी पृष्ठभूमि से आए थे, जिसकी जड़ें एक क्षेत्र विशेष में न होकर पूरे देश से संबंधित थी।"
हमारे यहां मोहभंग का एक लंबा दौर रहा है। यह समय गांधी के विवेक और जवाहर के आदर्श के अंतिम रूप से रद्द होने का है, या कहें कि पटेल का आदर्श वापस लौटा है। इसका संबंध राष्ट्रवाद और क्षेत्रीयता से है।
भारतीय मूल्य, परंपरा और नैतिकता नए अर्थों में उदघाटित होंगे, लेकिन इस देश में जिसके पास समृद्ध परंपरा और इतिहास है, ग्लोबीकरण की संताने परंपरा और इतिहास से रहित होंगी। ये अजीब सी विसंगति है, लेकिन ये न भूलें कि भूमंडलीकरण का आदर्श वह देश है जिसका अपना कोई इतिहास नहीं है। यह पीढ़ी पुराने मध्यवर्ग की जगह लेगी। इसमें बहुस्तरीय समाज को समझने की कुव्वत नहीं है। क्योंकि जो पीढ़ी उभरकर सामने आ रही है, आजादी या उसके फौरन बाद का समय उसकी स्मृति का अंग नहीं है। एक मायने में यह अच्छी बात इसलिए है कि इसे कोई हैंगओवर (पूर्वाग्रह) भी नहीं है। लेकिन यह पीढ़ी लोकतांत्रिक मूल्यों को कितना आगे बढ़ा पाएगी कहना मुश्किल है। इसकी स्मृति में इमरजेंसी के कटु अनुभव भी नहीं हैं। यह पीढ़ी इस बोध से वंचित है कि जे.पी. के आंदोलन में बिखरी हुई स्थानीय शक्तियां एक महान उद्देश्य को लेकर कुछ समय के लिए एक हुईं थी औऱ फिर बिखर गई। तब परिस्थिति कठिन थी, आज जटिल भी है।
यह अकारण नहीं है कि बाजारवाद, उपभोक्तावाद, भूमंडलीकरण औऱ अंधराष्ट्रवाद कि प्रक्रिया में लगभग एक साथ तेजी आई। लेकिन इसके बरक्स एक धारा औऱ है, जिसकी शुरूआत ऐन प्रारंभ से रही है। फिलहाल यह धारा भी एक प्रवृत्ति के रूप में सामने है औऱ विभ्रम का शिकार है। दोनों प्रवृत्तियां साहित्य में अधिक स्पष्टता से प्रतिबिंबित हो रही हैं। आगे चलकर उपभोक्तावाद विरोधी साहित्य तकनीक सचेत भी होगा और बाजार के अंतर्विरोधों को उघाड़ कर रख देगा। लेकिन अब तक का विमर्श एकालाप की तरह एकायामी है। बाजार के समर्थकों का भी औऱ इसके विरोधियों का भी। एक ध्रुविय विश्व की शक्ति कहीं और है औऱ वही चीजों का होना या न होना तय करेगी या कर रही है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि विश्व सरकार सरीखा कोरा आध्यात्मिक स्वपन पूरा होगा। बाजार में नई ताकतें उभरेंगी और विकेंद्रीकरण और बढ़ेगा। लेकिन सभी एक ही सत्ता द्वारा संचालित होने का दबाव महसूस करेंगे।
कुल मिलाकर एक ऐसा उपभोक्तावादी समाज होगा, जिसमें ग्लोबीकरण के प्रभाव समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार तक में साफ दिखेंगे। संबंधो को तोड़ना, छोड़ना या फिर नया जोड़ना औऱ फिर वही क्रम व्यवहारिक माना जाएगा। इस तरह संबंधों की अंतिम परिणति अकेला होने में होगी। मगर यह अकेलापन पुराने आधुनिकतावाद से जुदा होगा। तो लिजलिजी किस्म की भावुकता जो संबंधों के लिए एक दलदल रचती है उसका भी सफाया होगा। व्यक्ति अंतत: तंग आकर पूछेगा - मेरी पहचान क्या है? यही उपभोक्तावाद पर पहली चोट होगी। लेकिन संबंधों की लगभग सारी जटिलताएं मध्यवर्ग और उससे ऊपर के वर्ग के साथ होंगी। उनके प्रभाव से निम्नवर्ग नाहक ही त्रस्त होगा। लेकिन ये जटिलताएं इस तबके के साथ इतनी नहीं होंगी। दोनों वर्गों के बीच खाई इतनी चौड़ी होगी कि निर्णायक संघर्ष की स्थिति बन जाएगी। जो इस जटिलता को समझेगा वह समाज को सही दिशा देगा या अपना स्वार्थ साधेगा।
स्त्री देह प्रमुख उत्पाद है और होगी। समस्त उत्पादों को बेच लेने की तरकीब भी। लेकिन स्त्रीवादी विमर्श भीतर ही भीतर दो फाड़ होगा, क्योंकि मर्दवादी डिस्कोर्स बाजार में स्त्री देह के दोहन को स्त्री स्वातंत्रय के रूप में बकायदा एकाधिकार की तरह बरतेगा।
विशिष्ट अर्थों में हमारे यहां विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया मात्र उत्तर आधुनिक न होकर आधुनिक ही है और स्थानियतावाद की जड़ें काफी गहरे पीछे की ओर जाती हैं। इसे स्वतंत्रता के बाद के भारत के नक्शे में पा सकते हैं। मार्क टुली ने लिखा है - "यद्धपि नेहूरू ने केंद्राभिमुखी झुकाव को बनाए रखने पर बल दिया, लेकिन भाषा के मुद्दे पर उन्होंने राज्यों की ओर से पड़ने वाले दबाव के आगे घुटने टेक दिए। वे ब्रिटिश तंत्र द्वारा छोड़ी गई राज्यों की सीमाओं को बदलने के इच्छुक नहीं थे, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि इससे मुसीबतों का पिटारा खुल सकता है। लेकिन जब एक राजनीतिज्ञ ने मद्रास में नए राज्य की मांग करते हुए, जिसमें तेलगू राज भाषा हो, आमरण अनशन शुरू किया, तो नेहरू ने आत्मसमर्पण कर दिया और भाषा के आधार पर परिभाषित राज्य के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। "
नेहरू से अपने विमर्श को लेकर मोरारजी देसाई ने बताया - "मैंने पंडित नेहरू से कहा था कि वे बड़ी भारी गलती कर रहे हैं....क्योंकि यह बहुत विशाल देश है और विभिन्न भाषाओं, धर्मों वगैरहा के बावजूद इसे एख राष्ट्र के तौर पर जाना जाता है। भाषावाद मतांधता को जन्म देता है, जो ठीक नहीं है। अगर एक साझी भाषा ठीक से हो गई होती तो कोई दिक्कत नहीं थी.....वे शुरू से ही हिंदी को लेकर गंभीर नहीं थे। जवाहरलाल स्वयं अंग्रेजी के समर्थक थे, इसलिए वे कर भी क्या सकते थे?
उनकी पूरी ट्रेनिंग इंग्लैंड में हुई, नौ वर्ष की उम्र से वे इंग्लैंड में पढ़े। उनके पिता मोतीलाल नेहरू भारतीय के बजाय अंग्रेज ज्यादा थे; और कहा जाता है कि उनके कपड़े पेरिस से धुलकर आते थे।"
दबाव के आगे झुके रहने या सम्मोहित रहने की अच्छी खासी संस्कृति विकसित हो चुकी है। फिलहाल तो संक्रमण का दौर है। स्वयं से यही कह सकते हैं - "इब्तिदाए इश्क में रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या।"

हिंदी दिवस पर: बापू ने कहा था


"दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।"

"सारे संसार में भारत ही एक अभागा देश है, जहां सारा कारोबार एक विदेशी भाषा में होता है।"

"तो आइए संकल्प लें - कि हम सब हिंदी में अपना अधिकतम कार्य करेंगे।"

"स्वदेश, स्वराज्य और स्वभाषा का सम्मान रखेंगे।"

Friday, September 12, 2008

इंटरनेट की दुनिया में हिंदी का भविष्य

ब्लॉग टीवी की दुनिया के बारे में है। लेकिन ये भी सच है कि इंटरनेट के जरिए ही ये ब्लॉग संभव हो पाया है। इसलिए ख्याल आया कि इंटरनेट की दुनिया में हिंदी के भविष्य पर भी गौर फरमा लिया जाए।
इंटरनेट पर हिंदी अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर चुकी है। यह सिद्ध हो चुका है कि हिंदी किसी भी उच्च-भ्रू तकनीक के अनुकूल है। हिंदी की वेबसाइटों की संख्या जिस अनुपात में बढ़ रही है उसी अनुपात में इसके पाठकों की संख्या भी बढ़ रही है। लेकिन अभी हिंदी को नेट पर बहुत लंबा सफ़र तय करना है। इसके मार्ग में अनेक तकनीकी बाधाएँ हैं। इन बाधाओं के बारे में आगे बात करेंगे। पहले इस मिथक की बात करें जिसे हिंदी के प्रबुद्ध वर्ग तक ने अपने मन में बैठा रखा है। मिथक यह है कि इंटरनेट, शब्द और अंतत: किताब के लिए खतरा है। प्रबुद्ध वर्ग का इस उच्च-भ्रू तकनीक से अलगाव विचारधारात्मक उतना नहीं हैं, जितना कि इसके दाँव-पेंचों को न समझ पाने (जैसे आर्थिक या फिर तकनीकी जटिलताओं से अनुकूलन न कर पाना) के कारण है। अत: वे इससे एक दूरी बरतना ही पसंद करते हैं। इसलिए सबसे पहले इंटरनेट पर किताबों-पत्रिकाओं की संभावनाओं की बात की जाए।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में दुनिया बहुत तेज़ी से सिकुड़ती और पास आती जा रही है। वैश्विक ग्राम की अवधारणा के पीछे सूचना क्रांति की शक्ति है। इस प्रक्रिया में इंटरनेट की भूमिका असंदिग्ध है। जहाँ दुनिया भर में पाठकों की संख्या का ग्राफ़ नीचे आया है, वहीं सूचना क्रांति को किताब पर छाए ख़तरे के रूप में भी देखा जा रहा है। इलेक्ट्रानिक माध्यमों में इंटरनेट एक ऐसा माध्यम हैं, जहाँ कथा और अ-कथा साहित्य बहुतायत में उपलब्ध हो सकते हैं। इसका अर्थ है कि इंटरनेट पर कोई भी कृति इंटरनेट पाठक वर्ग के लिए डाउनलोड की जा सकती है। इससे वेब पीढ़ी के पाठक तो अनमोल साहित्य और वैचारिक पुस्तकों से जुड़ेंगे ही, साथ में पुस्तक के वर्तमान स्वरूप में एक नया आयाम भी जुड़ेगा। इस दिशा में प्रयास हुए भी हैं, उदाहरण के तौर पर माइक्रोफ़िल्म को सामने रखते हैं। ख़ास अर्थो में यह भी पुस्तक की परिभाषा में एक नया आयाम तो जोड़ती है, लेकिन महँगाई और जटिल तकनीक के कारण इसकी पहुँच सीमित है, जबकि इंटरनेट का फैलाव विश्वव्यापी है।
सही मायनों में किताब के व्यापक प्रसार की प्रक्रिया पंद्रहवी शताब्दी में प्रिटिंग प्रेस के आविष्कार के बाद से ही आरंभ हुई थी। इसने ज्ञान पर कुछ विशिष्ट लोगों के एकाधिकार को तोड़ा और आम जन के लिए ज्ञान की नई दुनिया के द्वार खोले। अब यही काम इंटरनेट भी कर रहा है, लेकिन ज़्यादा तीव्रता से और व्यापक स्तर पर, इंटरनेट ने सूचना या ज्ञान पर एकाधिकार को तोड़ा और विकेंद्रित किया है। विश्वव्यापी संजाल (वर्ल्ड वाइड वेब जो संक्षेप में डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू. कहलाता है) के ज़रिए इंटरनेट उपयोगकर्ता दुनिया भर की कैसी भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार जो कार्य प्रिटिंग मशीन के आविष्कार से आरंभ हुआ था, उसे इंटरनेट ने विस्तार ही दिया है, अतिशय सूचना की समस्या और इस पर किसी एक ही व्यक्ति विशेष के वर्चस्व के प्रश्न को निश्चित ही अनदेखा नहीं किया जा सकता, इस ओर सावधान रहने की आवश्यकता है। जहाँ तक इंटरनेट पर साहित्यिक कृतियाँ उपलब्ध कराने की बात है, तो यह प्रकाशकों और साहित्यकारों की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। प्रारंभिक दौर में हम पीछे रह गए हैं।
इंटरनेट की उपयोगिता को सबसे पहले विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने ही समझा टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, नई दुनिया, इंडिया टुडे, आउटलुक जैसी पत्रिकाओं ने अपने इंटरनेट संस्करण निकालने आरंभ किए, इससे निश्चित ही इन पत्र-पत्रिकाओं की पाठक संख्या बढ़ी है। अब तो हिंदी में दुनियाभर की वेबसाइट मौजूद हैं। इनमें से कई का दायरा तो काफी बड़ा है। 'द स्टेट आफ द साइबरनेशन' पुस्तक के लेखक नील वैरट के अनुसार, इंटरनेट के संदर्भ में 'पाठ' को तीन भागों मे बाँटा जा सकता है।
तात्कालिक महत्व के समाचार-परक लेख, जैसे दैनिक समाचार पत्र।
पृष्ठभूमीय समाचार-परक लेख (बैकग्राउंडर), जिनकी उपयोगिता अपेक्षाकृत कम समयबद्ध होती है जैसे साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाएँ।
स्थायी महत्व का कथा और अ-कथा साहित्य, यानी किताबें।
इंटरनेट पर पूरी किताब उपलब्ध करवाना बाइट का खेल है। (बाइट : कंप्यूटर में डेटा सुरक्षित रखने की आधारभूत इकाई, जिसमें एक बाइट आठ बिट के बराबर होती है), अधिकांश समाचार-परक लेखों की शब्द संख्या एक हज़ार शब्दों से कम होती है, पत्रिकाओं में छपने वाले लेखों की पाँच हज़ार शब्दों से कम, पूरे समाचार-पत्र या किसी पत्रिका को कंप्यूटर पर डाउनलोड करने में औसतन चालीस से पचास हज़ार शब्द लग सकते हैं। पुस्तकें इंटरनेट पर उपलब्ध करवाने में औसतन अस्सी हज़ार शब्द लगेंगे, यद्यपि यह संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक प्रतीत होती है, लेकिन पूर्णत: व्यवहार्य है। कंप्यूटर की भाषा में कहें तो बिना चित्रों की अस्सी हज़ार शब्दों वाली किताब में मात्र 0.5 मेगाबाइट खर्च होंगे।
पुस्तकों के पाठकों की संख्या में आई गिरावट के इस दौर में इंटरनेट हमें एक नया पाठक वर्ग पैदा करने का अवसर देता है। तकनीकी विकास के साथ किताब का स्वरूप भी बदला है। हम जिस रूप में किताब को आज पाते हैं वह पहले से ऐसी नहीं थी। लेकिन तब तक से लेकर अब तक उसके होने पर कोई विवाद नहीं रहा। हाँ। तकनीक का विरोध औद्योगिक क्रांति के समय से ही कमोबेश होता रहा है। विक्टोरियन इंग्लैंड में कवि और समाज सुधारक विलियम मौरिस एक समय प्रिंटिंग प्रेस के सख़्त विरोधी थे। उनकी नज़र में इससे किताब के सौंदर्य और भव्यता पर आँच पहुँचती थी। स्पष्टत: यह एक अभिजातवादी दृष्टिकोण है। हिंदी के रचनाकारों की समस्या है कि वह तकनीक का कोई सकारात्मक उपयोग प्राय: अपने लिए नहीं पाते। क्या यह स्थिति इसलिए है कि वें एक पिछड़े समाज के प्रतिनिधि हैं? किसी भी तकनीक के दो पहलू हुआ करते हैं। एक अच्छा तो दूसरा बुरा। बुरे का विरोध और अच्छे का अपने पक्ष में उपयोग ही उचित है, न कि कोरे विरोध के द्वारा स्वयं को इससे असंयुक्त कर लेना।
किताब का जो वर्तमान स्वरूप हमारे सामने है, उसमें किताब की अपनी स्वायत्त सत्ता होती है और पाठक की स्वायत्तता के खिलाफ़ इसकी दख़लअंदाज़ी बहुत सीमित होती है। मगर ऐसा ही इंटरनेट उपयोगकर्ता के साथ भी है। वह जब चाहे तब कंप्यूटर का स्विच आफ़ कर सकता है। हाँ! यह अवश्य है कि लैप टॉप सरीखे महँगे कंप्यूटर का उपयोग नदी किनारे बैठकर कोई साहित्यिक कृति पढ़ने के लिए नहीं किया जा सकता। यह कंप्यूटर की सीमा भी है। लेकिन तकनीक सुलभ और सस्ती हो, तो भविष्य में कुछ भी संभव है।
इंटरनेट पर साहित्य उपलब्ध होने से कुछ विधा संबंधी परिवर्तन आना तय है। उदाहरण के लिए, जिस प्रकार पत्रकारिता के दबावों के चलते रिपोर्ताज, धारावाहिक लेखन सरीखी विधाएँ सामने आई, उसी तरह कुछ नवीन विधाएँ इंटरनेट पर जन्म ले सकती है। सचित्र लेखन, कार्टून जिसका एक रूप है, उसकी तर्ज़ पर एक्शन भरा लेखन सामने आ सकता है। फ़िल्म और साहित्य के बीच की कोई विधा विकसित हो सकती है। ऑन लाइन फ़रमाइशी लेखन की संभावना भी बनती है। इंटरनेट पर सहकारी यानी सामूहिक लेखन के प्रयास भी हो सकते हैं। अब प्रश्न उठता है कि क्या इंटरनेट पर गंभीर साहित्य की रचना संभव है या फिर यह सिर्फ़ पॉपुलर साहित्य तक ही सिमट जाएगा, इस प्रश्न का उत्तर भविष्य ही दे सकता है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इंटरनेट स्वयं संप्रेषण माध्यम की अंतिम कड़ी नहीं हैं।
वैज्ञानिक खोजें किसी एक बिंदु पर आकर नहीं रुकतीं, टेलीप्रिंटर के आने से संप्रेषण माध्यम में एक नया आयाम जुड़ा और बाद में यह रेडियो के विकास की कड़ी बना। हालाँकि अपने स्वतंत्र रूप में टेलीप्रिंटर आज भी बना हुआ है। इतिहास बताता है कि मशीन पर किताब छपने से क्लासिक की परिभाषा और किताब का स्वरूप, दोनों ही बदले हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध होने वाले साहित्य को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। कुल मिलाकर इंटरनेट-साहित्य किताब की परिभाषा में कुछ नया ही जोड़ता है।
बहुत कठिन है डगर पनघट कीजब तक इंटरनेट सेवा मुफ़्त ही न हो जाए, हिंदी पट्टी तक इसका पर्याप्त विस्तार हो सकेगा, इसमें शक है। हिंदी को तकनीक सचेत बनाने में बहुत सारी समस्याएँ हैं। इन समस्याओं का हल निकाले बिना हिंदी को इंटरनेट पर लाने के अब तक के तमाम प्रयासों समेत भविष्य के भी समाप्त प्रयास प्रभावकारी नहीं हो सकेंगे।
हिंदी में फोंट को ज़बरदस्त समस्या है। हिंदी के सैंकड़ों फोंट उपलब्ध हैं। और यही समस्या की असली जड़ है। अंग्रेज़ी के 'टाइम्स न्यू रोमन' की तरह हिंदी में कोई 'वैश्विक फोंट' नहीं है कि सभी हिंदी भाषी एक ही फोंट पर काम कर सकें। हर पत्रिका, हर अख़बार और हर प्रकाशक अपना एक नया ही फोंट चलाता है। इस तरह से हिंदी में फोंट को लेकर अराजकता की स्थिति बनी हुई है। इसी कारण हिंदी में कोई एक जैसा की-बोर्ड (कुंजीपटल) नहीं हैं। हालाँकि बाज़ार में की-बोर्ड पर चिपकाने वाले स्टिकर मिलते हैं। लेकिन जिन लोगों को व्यावसायिक मांगों के चलते एक से अधिक फोंट पर काम करना पड़ता है उनके लिए ये स्टिकर किसी काम के नहीं होते, यह हिंदी की व्यावसायिक दुर्बलता है। इस मायने में यह हिंदी वालों की विलक्षण मेधा ही है कि वे अंग्रेजी के की-बोर्ड पर हिंदी की टाइपिंग कर लेते हैं। इससे सिद्ध होता है कि हिंदी वाले तमाम मुश्किलों के बावजूद तकनीक सचेत बने हैं। इंटरनेट उपयोगिता हिंदी-प्रेमी होने के कारण हिंदी की वेबसाइटों पर जाते तो हैं। लेकिन हिंदी में 'सबके लिए फोंट' न होने कारण टिकते नहीं। वेबदुनिया सरीखी प्रसिद्ध वेबसाइट के 'चैट सिस्टम' के असफल होने का यही कारण है। अपना समय, ऊर्जा और पैसा खर्च करके इंटरनेट सर्फिंग करने वाले उपयोगकर्ताओं से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे हिंदी के दुनिया भर के फोंट सीखते फिरेंगे। इन फोंटों से परिचित न होने की स्थिति में इंटरनेट उपयोगकर्ता को लगता है कि वह अपना समय और पैसा बर्बाद कर रहा है। इसी कारण हिंदी में ई-मेल भेजने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति या तो इंटरनेट पर जाता ही नहीं या फिर अंतत: अंग्रेज़ी में ही ई-मेल करता है।
दरअसल की-बोर्ड की मैपींग (एक ऐसी मानक तालिका निर्धारित करना, जिसमें प्रत्येक अक्षर, अंक और चिह्न के लिए तयशुदा मानक 'को' हों) के मूल में ही फोंट की समस्या विद्यमान है। अंग्रेज़ी में भले ही फोंट अलग-अलग (टाइम्स न्यू रोमन, एरियल) हैं, लेकिन उन सबका की-बोर्ड एक ही है। असल में हिंदी का की-बोर्ड बनाते समय कोई मानक निर्धारित नहीं किया गया। अंग्रेज़ी में आई.बी.एम. को छोड़कर सभी कंप्यूटरों में ए.एस.सी.आई.आई. मानक का निर्धारण और पालन किया गया। इस तरह से बड़ी समस्या पहले ही सुलझा ली गई। इससे हुआ यह कि आप फोंट कोई भी इस्तेमाल करें, की-बोर्ड एक ही रहेगा। हिंदी की तरह नहीं कि कृतिदेव फोंट में अंग्रेज़ी के की-बोर्ड का 'डी' दबाने से 'क' आएगा और शुषा फोंट चुनने पर 'द', इसलिए की-बोर्ड का मानक निर्धारित करना आवश्यक है। यह तकनीकी समस्या है, लेकिन इससे इंटरनेट पर ही नहीं, कुल कंप्यूटर परिदृश्य पर हिंदी का भविष्य निर्भर करता है। हिंदी जानने वाले कंप्यूटर पर हिंदी को बहुतायत में तभी अपना सकेंगे जब यह बाधा दूर हो जाए। इस समस्या को सुलझाना निजी उद्यम के बस की बात नहीं हैं। बहुत सारे निजी प्रयास होने और कोई तयशुदा मानक न होने के चलते ही अराजकता की स्थिति बनी है। सरकार को इस दिशा में पहल करनी होगी। एक मानक की-बोर्ड बन जाने और एक नियम या कानून के तहत अनिवार्य होने से ही यह बाधा दूर हो सकती है।दूसरी बिकट समस्या यू.आर.एल.ऐड्रस की है। जब तक यू.आर.एल. ऐड्रस और इंटरनेट संबंधी अन्य तकनीकी चीजें हिंदी में नहीं होंगी, तब तक अंग्रेजी न जानने वाले बहुसंख्यक हिंदीभाषी इससे नहीं जुड़ेंगे। इस प्रकार के इंटरनेट उपयोगकर्ता भविष्य में सर्वाधिक लाभ देने वाले सिद्ध हो सकते हैं।
तीसरी बड़ी समस्या इंटरनेट पर कोई 'इच्छित जानकारी खोजने' से संबंधित है। इंटरनेट का एक बड़ा ही दिलचस्प आयाम 'सर्च इंजन' हैं। सर्च इंजन की सहायता से इंटरनेट उपयोगकर्ता बड़ी आसानी से कैसी भी वांछित जानकारी जुटा लेता है। विडंबना बस यही है कि सूचना क्रांति के दूसरे दौर में प्रवेश हो जाने के बावजूद हिंदी में एक भी सर्च इंजन नहीं हैं। इंटरनेट पर लगभग सभी जानकारियाँ चूँकि अंग्रेज़ी में हैं, इसलिए सर्च इंजन भी अंग्रेज़ी में ही हैं। अंग्रेज़ी भाषा न जानने वाले के लिए इसकी कोई उपयोगिता नहीं हैं। कहना न होगा कि हिंदी पट्टी को सूचना क्रांति के पूरे लाभ नहीं मिले हैं। इस मायने में पहले से पिछड़ी हिंदी पट्टी और पीछे जा रही है। जबतक हिंदी का अपना विशाल डेटाबेस नहीं बन जाता, तब तक सर्च इंजन में अनुवाद की सुविधा देने वाले सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया जा सकता है। भाषा भले ही सहज, प्रवाहपूर्ण न हो, लेकिन अंग्रेज़ी न जानने वाला कम से कम अपनी भाषा में जानकारी तो जुटा सकेगा, इस दिशा में कापीराइट की समस्या आड़े आ सकती है, तो एक सुझाव यह हो सकता है कि इस तरह की साइट के लिए कुछ पैसा लिए जाने का प्रावधान कर लिया जाए, हालाँकि यह कोई बहुत कारगर उपाय प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि इंटरनेट पर पैसा उपयोगकर्ताओं से न लेकर विज्ञापनदाताओं से लिया जाता है। बिल्कुल टी.वी. की तरह, जिसमे टी.वी. चैनल दर्शक से पैसा नहीं माँग सकते, ऐसा न करने से फ्लाप तक हो सकता है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि इस दिशा में उस कंपनी को प्रयास करने होंगे जो हिंदी का सर्च इंजन उपलब्ध कराएगी, यह लचीली, कार्यक्षम और आक्रमक विपणन नीति से ही संभव हो सकता है। टी.वी. की ही तरह जितने अधिक साइट देखने वाले होंगे उतने ही विज्ञापन भी जुटाए जा सकेंगे।
चौथी बड़ी समस्या स्वयं हिंदी की वेबसाइटों को लेकर है। हिंदी की इन वेबसाइटों पर ग़ौर करें तो ख़ासे दिलचस्प परिणाम सामने आते हैं। इन वेबसाइटों की खोज-खबर लेकर, अंग्रेज़ी की वेबसाइटों से तुलना करने पर पता चलता है कि हिंदी की वेबसाइटें दरअसल कितनी पिछड़ी या बेहतर काम कर रही हैं। इंटरनेट पर मुख्यत: पाँच प्रकार की वेबसाइटें उपलब्ध हैं।
वेबदुनिया सरीखी वेबसाइटें, जिन्हें अंग्रेज़ी के इंडिया टाइम्स की प्रतिकृति कहा जा सकता है, वेबदुनिया ने हिंदी की अन्य वेबसाइटों की तुलना में स्वयं को अधिक बाज़ार सचेत सिद्ध किया है। इसमें भी वे सभी हथकंड़े अपनाए जाते हैं, जिन्हें इंडियाटाइम्स एक लंबे समय से अपनाता रहा है। इसकी सबसे बड़ी कमी यही है कि इसके पास इंडिया टाइम्स की तरह सर्च इंजन नहीं है। सकारात्मक पक्ष वही है कि इसमें साहित्य और विचार के लिए भी जगह है
अप्रवासी भारतीयों और भारत में ही निवास करने वाले लोगों की निजी वेबसाइटें, इन वेबसाइटों से हिंदी प्रेम तो झलकता है, लेकिन स्तरीयता की कमी रहती है। इन वेबसाइटों पर जाना अपना समय और पैसा नष्ट करना है, लेकिन कुछ बेहतर पयास भी दिखते हैं, लोग निजी स्तर पर अपने पसंदीदा रचनाकार/रचनाकारों की रचनाएँ वेबसाइट बनाकर उपलब्ध कराते हैं
ग़ैर सरकारी संगठनों, विदेशी विश्वविद्यालयों और स्वामियों या मठाधीशों की वेबसाइटें चूँकि एक ख़ास उद्देश्य को लेकर ही बनाई जाती है, इसलिए इनका पाठक वर्ग भी विशिष्ट या अलग प्रकार का होता है। सरकारी वेबसाइटों को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है, लेकिन सरकार की महिमा ही है कि हिंदी के राष्ट्रभाषा होने के बावजूद, सरकारी वेबसाइटों पर उपलब्ध अधिकांश जानकारियाँ अंग्रेज़ी में ही हैं। इससे 'सबको सूचना के अधिकार' की खिल्ली ही उड़ती लगती है। सरकार ऐसी भाषा में जानकरी दे रही है, जिसे बहुसंख्यक जनता समझती ही नहीं है। देसी शिक्षा संस्थानों की साइटों पर भी अंग्रेज़ी का ज़ोर है।
पत्रिकाओं (साहित्यिक और गैर साहित्यिक), अखबारों, टीवी चैनलों और सिनेमा संबंधी वेबसाइटों को यहाँ रखा जा सकता है। पत्रिकाओं, अख़बारों और टीवी चैनलों की स्थिति फिर भी ठीक है, लेकिन जिन्हें सिनेमा पर कुछ भी स्तरीय पढ़ने की आदत हैं, उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी।
उपरोक्त श्रेणी की अधिकांश वेबसाइटें इस कदर जानकारी विहीन है कि उन्हें देखने का कोई तुक नहीं बनता है। कहना न होगा कि हिंदी को इंटरनेट पर अभी बहुत सफ़र तय करना है। साहित्यिक पत्रिकाओं और किताबों को हिंदी में इंटरनेट पर उपलब्ध करने को लेकर बहुत से बुद्धिजीवी सवाल खड़े करते रहे हैं। उनसे यही कहा जा सकता है कि आज हम जिस रूप में किताब को जानते हैं वह हमेशा से ऐसी नहीं थी। इसलिए रूप बदलने को न तो शब्द की मृत्यु मानना उचित है और नही 'फार्म' को लेकर रूपवादी होना ही ठीक है। भारत सरीखे बहुस्तरीय समाज में, छपे हुए शब्द की महत्ता कम नहीं होने वाली। इसलिए दोनों मोर्चों पर एक साथ लोहा लेने की ज़रूरत है।
भूमंडलीकरण के औज़ार, बाज़ार और मीडिया ने न सिर्फ़ हिंदी को, बल्कि अपनी देहरी तक सीमित अन्य भाषाओं को भी विस्तार दिया है। प्रौद्योगिकी ने इसे आसान बनाया है। एक बार फिर भाषा निर्णायक रूप से बदल रही है। हम एक ऐसे 'संक्रमण बिंदु' पर खड़े हैं, जहाँ से हमें भाषा की ताक़त और कमज़ोरियों के सवाल से भी दो-चार होना होगा। मीडिया में हिंदी के बढ़ावे को देखकर जो लोग खुश हो रहे हैं, उन्होंने स्थिति पर गहराई से विचार ही नहीं किया है। इसका अर्थ है, जनता को लगातार एक ऐसी भाषा में बनाए रखना, जिसमें ज्ञान नहीं, दैनिक सूचनाएँ ही अधिक हों, ज्ञान का केंद्रीकरण इस मायने में अंग्रेज़ी भाषा के पक्ष में और अधिक हुआ है। हिंदी में आज आप कोई भी स्थायी या अस्थायी महत्व को वैश्विक जानकारी इंटरनेट पर नहीं जुटा पाएँगे। मगर हिंदी को तकनीक सचेत बनाने में जो तकनीकी दिक़्क़तें हैं, उन्हें दूर किए बिना इंटरनेट पर हिंदी की सफलता को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। इन सब बातों का यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि तमाम तकनीकी दिक़्क़तों के बावजूद हिंदी की बेहतर वेबसाइटें नहीं आ रही हैं। इसका उद्देश्य तो बस पाठकों को वस्तुस्थिति से परिचित कराना है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि इंटरनेट पर ऐसी वेबसाइटें बहुतायत में हैं जो हिंदी के ई-पाठक के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। ज़रूरत है बस इन वेबसाइटों के बारे में जानकारी की।

ओलंपिक: बाजार और राजनीति का मिलजुला खेल

यह सही है कि हिटलर पहला व्यक्ति था, जिसने ओलंपिक खेलों का सीधे-सीधे राजनीतिक इस्तेमाल किया और तब एक अश्वेत धावक जेस्सी ओवंस ने नाजी गुरूर को तोड़ फासिस्ट विचारधारा की कलई ही खोल दी थी। लेकिन इसके बाद से ओलंपिक क्रमश: विभिन्न देशों की राजनीति का हिस्सा बनते चले गए। अब खेलों के बाजारीकरण का दूसरा दौर प्रारंभ हो चुका है। राजनीति और बाजार के गठबंधन ने खेलों को अपने हित साधने का एक औजार मात्र बनाकर रख दिया है। यहां अपने देश में ही कुछ साल पहले क्रिकेट मैच फिक्सिंग प्रकरण के अवसाद में डूबे दर्शकों को दूरदर्शन ने ओलंपिक दिखाने का प्रयास भारतीय खिलाड़ियों को मैडल जीतते हुए दिखाने के लिए नहीं, बाजारीकरण के दबाव में किया। (अगर एक अरब से ज्यादा आबादी का देश मात्र एक सोना, दो कांसा जीतने पर जश्न मनाने लगता है, तो इसलिए नहीं कि हम सिर्फ इस लायक थे और इससे हम खुश हैं, बल्कि इसलिए कि अब भी पोस्टमार्डन युग में हम गुदड़ी के लाल यानी महानायकों की कल्पना करते हैं, और उसकी एक झलक मात्र मिल जाने से करीब-करीब पागल ही हो जाते हैं, मेरी बात मान लीजिए स्विमिंग में आठ गोल्ड जीतने वाले फ्लेप्स को चार साल बाद आंकड़ों में रूची रखने वाले ही याद करेंगे। बाजार दूसरा हीरो दे देगा, क्योंकि ये महानायकों का नहीं टटपूंजीयों का युग है। पिछले कई साल से ओलंपिक ट्रेस कर रहा हूं। मैट बियोंडी, ईयान थोर्पे को आज कौन याद करता है, अमेरिका करता होगा, ठीक उस तरह जैसे हास्यास्पद ढंग से हम ध्यानचंद को याद करते हैं)
इस देश में बड़े बाप का बेटा ही गोल्ड जीत सकता है, वही जो करोड़ों खर्च कर सकता है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर अभिनव पर गर्व है। उसने बिजनेस नहीं किया। करोड़ों लगा सकता था तो अपने शौक पर लगाया, इसलिए हम उस पर गर्व करते हैं। पर मेरे असली हीरो वो हैं जो कांसा जीतकर लाए। वो एक कमरे में बीस-बीस लोगों के साथ रहते थे। न नहाने को था न प्रैक्टिस करने को। फिर भी पागलपन की हद तक खिलाड़ी बने रहे। जीते तो विनम्रता नहीं छोड़ी। पर इन बेचारों की बदकिस्मती ये है कि इन्हें कुछ नहीं मिलेगा। शायद वो इनाम भी जो इनके जीतने पर विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने दिए। इनके नाम रह जाएगी एक याद कि हमने देश का नाम रोशन किया था और हमें इज्जत बख्शी गई थी)
बहररहाल, १८९६ में ऐथेंस में हुए खेलों से आधुनिक ओलंपिक की शुरूआत मानी जाती है। इस पूरे आयोजन के पीछे फ्रांस के कुलिन पियरे द कुबर्ती की विलक्षंण प्रतिभा थी। यह वह समय था जब युरोप गहरी उथल-पुथल से गुजर रहा था। राजनीतिक शक्ति का केंद्र तेजी से ब्रिटेन बनता चला जा रहा था। मलिका विक्टोरिया का कभी न डूबने वाला सूरज धीरे-धीरे तपने लगा था। नेपोलियन के पतन के बाद फ्रांस राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व के लिए छटपटा रहा था। ऐसे में ओलंपिक एक ऐसा सांस्कृतिक आयोजन बना जिसके राजनीतिक प्रभाव दूरगामी सिद्ध हुए। नए नायकों के अभाव में पुराने नायकत्व की स्थापना की गई। यह वास्तविकता के ऊपर मिथक की जीत थी।
इधर इन खेलों पर राजनीति से एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। पिछले दो-तीन दशकों में हैरतअंगेज ढंग से खलों का व्यावसायीकरण हुआ है। खिलाड़ियों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने का प्रयास गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन वास्तविकता इतनी एकांगी नहीं है। बाजीरीकरण ने खेलों को बिकाऊ माल और मुनाफाखोरी का उपक्रम बनाकर रख दिया है। इसमें बाजी वही देश ले जाते हैं जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां विश्व बाजार की ताकत के रूप में खेलों पर अपना प्रभाव ही नहीं डालती बल्कि उन्हें अपनी जरूरत के हिसाब से चलाती भी हैं।
खेलों के बाजारीकरण ने भाड़े के मरजीवड़ों (ग्लैडिएटर्स) की एक ऐसी जमात पैदा कर रही हैं जो क्षणजीवी नायक की गति को प्राप्त होते हैं। हर ओलंपिक में एक नया मालबेचू किस्म का नायक उभरता है और पुराने का नामो-निशान नहीं रहता। बीजिंग ओलंपिक का नायक फ्लेप्स है। अगले ओलंपिक में उसकी तेजी, गति, आक्रामकता को याद भी रखेगा मुझे इसमें शक है। वैश्विक आर्थिक हितों के संरक्षक के रूप में ही मीडिया अपने आकाओे के हितों के अनुरूप ही उत्पाद बेचू नए नायक को उठाता है और पुराने को विस्मृत कर देता है। ( हाय रे गांगुली, सबसे सफल थे अब ईरानी ट्राफी से भी बाहर हो गए हो) लेकिन सवाल ये उठता है कि भाड़े के मरजीवड़ों की छवि किस प्रकार खेल भावना पर की प्रकृति और आचार संहिता पर कुठाराघात करती है। क्या अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताएं खेलों के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति भर हैं या ये ऐसे स्थल हैं जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां मोटे मुनाफे की फसल काटती हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए स्टार खिलाड़ियों, कलाकारों पर पैसा लगाना पसंद करती हैं। उताहरण के लिए हमारे यहां हाकी के बजाय अनधिकृत रूप से क्रिकेट दर्जा लिए हुए है। सो क्रिकेट का स्वरूप बदला गया है। सफेद पोशाकें रंगीन हो चुकी हैं। कंपनियों के लोगो और बिल्ले खिलाड़ियों के कपड़ों, टोपियों से लेकर जूतों तक में चमकते रहते हैं।
पेप्सी और कोका कोला (इनके देश में क्रिकेट नही खेला जाता) ने इन सफल खिलाड़ियों को अनाप-शनाप पैसा और नायकत्व प्रदान किया है। क्यों? जाहिर है इससे उन्हें अपने उत्पादों के दूर-दूर तक प्रचार और बिक्री में आसानी होती है। कुल मिलाकर कहा जाए तो इनका पूरा विज्ञापन तत्व करोड़ों दर्शकों की मानसिकता को एक खास सांचे में ढालकर अपने उत्पादों की बिक्री में इजाफा करना है।
मोटा मुनाफा कमाने के लिए क्या-क्या छल-छद्म अपनाए जाते हैं, यह इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। १९८७ में अपनी मृत्यु तक खेल का समान बनाने वाली प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनी एडिडास के प्रमुख हार्स्ट डैसलर इंटरनैशल स्पोर्ट्स एंड लैजर के भी मालिक थे। इस छोटी कंपनी का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं था। यह कंपनी बड़े-बड़े आयोजन करने वाले संगठनों से बढ़िया संबंध बनाने का माध्यम थी, जो एडिडास के लिए महत्वपूर्ण संपर्कसूत्र थे। यानी खेलों के आयोजनों को अपने पक्ष में करने के लिए इस सेंधमार कंपनी की स्थापना की गई थी। इसी तरह १९८० के मास्को ओलंपिक के अमेरिकी बहिष्कार के पीछे राजनीतिक कारणों के अलावा यह विचार भी था कि इससे पश्चिमी मीडिया की रूची कम होने से सोवियत संघ को स्पष्टत: आर्थिक हानि होगी। लेकिन इसके बावजूद मास्को खेलों के प्रसारण अधिकार करीब ८.७ करोड़ डालर में बिके और विज्ञापनों से होने वाली आय १५ करोड़ डालर आंकी गई। जाहिर है राजनीति बाजार पर हावी नहीं हो सकी।
लेकिन खेलों के बाजारीकरण का उत्कर्ष १९९२ में चोटी पर पहुंचा, जब अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी ने ५० करोड़ डालर के प्रसारण अधिकार की पेशकश को ठुकरा दिया। ये ओलंपिक खेलों की हैसियत और अधिक लाभ कमाने की गुंजाइश को दर्शाता था। ५० करोड़ डालर की पेशकश आखिर कितने व्यापारिक संगठनों को नसीब हो पाती है। मगर ये मौका मिला ओलंपिक कमेटी को, जो कहने को तो खेलों में व्यवसायिकता के खिलाफ है और ओलंपिक के दरवाजे गैरपेशेवर खिलाड़ियों के लिए ही खोलती है, पर स्वयं आकंठ बाजारीकरण में डूब चुकी है।
...इस प्रक्रिया की सहज परिणति १९९६ में हुई जब परंपरा, इतिहास और मिथक के बूते 'शताब्दी आयोजन' के ग्रीस के भावुक दावे को ठुकरा दिया गया। उसकी जगह अमेरिकी शहर अटलांटा के चुनाव ने ओलंपिक खेलों से जुड़े ऊंचे आदर्शों की कलई ही खोल कर रख दी। सिडनी में हुए सबसे विशाल ओलंपिक की ख्याति कम महत्वपूर्ण नहीं रही कि ये उस समय का सबसे कमाऊ ओलंपिक साबित हुआ। एक तरह से ये इस बात का भी प्रतीक बना कि हर ओलंपिक आयोजन के बाद व्यावसायिकता की गिरफ्त खेलों पर बढ़ती ही चली गई।
खेलों के अत्यधिक व्यवसायीकरण ने खिलाड़ियो को अनुचित शोहरत पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को मजबूर कर दिया है। हानिकारक उत्तेजक दवा स्टोरायड्स का सेवन यूं ही नहीं किया जाता। जैसे विश्वसुंदरियों का निर्माण एक भूमंडलीय उद्योग बन चुका है, वैसे ही खिलाड़ियों का उत्पादन इस उद्योग का पुरुष संस्करण है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को महिला खेलों में कोई दिलचस्पी नहीं है। कुछ साल पहले अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका फ्रंटलाइन के मुताबिक खेलों की ८२ फीसदी प्रायोजक कंपनियां महिला खिलाड़ियों मे कोई दिलचस्पी नहीं रखती (जब तक की वो सानिया मिर्जा की तरह आकर्षक यानी सेक्सी न हो, उसका खेल गया भाड़ में)। खेलों की इस राजनीति और बाजारीकरण ने खिलाड़ियों की मानसिकता को भी बदल डाला है। वो एक ऐसे व्याहमोह में पड़ गए हैं जिसे किसी भी हाल में स्वस्थ मानसिकता की निशानी नहीं कहा जा सकता। एक स्तर पर इसे अपराधी मानसिकता कह सकते हैं। इस व्याहमोह की झलक आप पूर्व ब्रिटिश बाडी बिल्डिंग चैंपियन जो वारीक्क में देख सकते हैं। वो लंबे समय से गुर्दे औऱ यकृत के विकारों से पीड़ित है। उसका कहना है कि गौरव के उस क्षण के लिए वो अब भी स्टीरायड्स का सेवन करने से नहीं चुकेंगी। जाहिर है खिलाड़ियों की एक ऐसी जमात पैदा हो रही है जो "बाकायदा बीमार" अमेरिकी धावक फ्लों जिन्होंने सौ मीटर दौड़ में विश्व रिकार्ड कायम किया, मात्र पैंतीस वर्ष में चल बसी। सारी दुनिया जानती है कि उनकी असामयिक मौत का कारण मादक दवाओं के उपयोग से जुड़ा है।
अंत में ट्रैक एंड फील्ड प्रतियोगिताओं से जुड़े एक मिथक की बात कर लेते हैं। अश्वेत खिलाड़ियों के दबदबे को सारी दुनिया चकित होकर देखती है। ऐसे विकसित राष्ट्र भी अश्वेत खिलाड़ियों को उतारते हैं, जहां उनकी संख्या न के बराबर है। इसलिए इन खिलाड़ियों को तुरत-फुरत नागरिकताएं दी जाती है्ं। लेकिन इतने सारे अफ्रीकी देश हैं, वो ओलंपिक पदक तालिका से गायब क्यों रहते हैं। जाहिर है कुपोषण, बीमारी और भुखमरी जैसी समस्याओ से त्रस्त देश अनाप-शनाप पैसा किसी खिलाड़ी पर कैसे खर्च कर सकते हैं?
कुल मिलाकर हम बाजार के युग में जी रहे हैं। कार्पोरेट प्रायजकों, विज्ञापन और मार्केटिंग एजेंसियां और मीडिया जिनका भी पैसा इस खेल में लगा है, वे हर हाल में एक कृत्रिम लेकिन सहज दिखती अनिश्चितता का माहौल पैदा करते हैं। खेल को अधिक उत्तेजक और आक्रामक बनाने के लिए उसके नियमों में बदलाव किए जाते हैं। बाजार सफल नायक को क्षणभंगुर महानायक का दर्जा तो प्रदान करता है, लेकिन उस पर दबाव बनाए रखता है और बदले में अपने साबुन तेल या ठंडे (मीठे पानी) जैसे किसी उत्पाद (देश गया भाड़ में) की खातिर हर हाल मं कुछ रोमांचकारी कर गुजरने को मजबूर करता है। रोनाल्डो अच्छा फुटबाल खेलता है ( कुछ उसे महान कहते हैं) फ्रांस में हुए विश्वकप में जिन कंपनियों ने उस पर पैसा लगाया हुआ था वो चाहती थीं कि बीमारी के बावजूद वो खेले। परिणामस्वरूप रोनाल्डो को बीमार होने के बावजूद खेलना पड़ा और उसके देश की करारी हार हुई। दूसरी ओर दर्शकों में युद्धोन्माद की सी स्थिति पैदा की जाती है और दोनों ओर के दर्शकों को एक ही माल बेचा जाता है। इस प्रकार से निजी स्वार्थों के लिए राजनीति और बाजार अंधराष्ट्रवाद का ऐसा खुमार (हमारे यहां इसे भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट की जंग से जोड़कर देखा जा सकता है) पैदा करते हैं जो खेल भावना की ऐसी की तैसी कर कर रख देते हैं। राजनीति साधने का ये कुछ साल पुराना उपक्रम है और राजनीतिज्ञों में काफी लोकप्रिय है (या वो ऐसा कर पाने की हसरत पाले रहते हैं) इसे जनता का ध्यान बुनियादी समस्याओं से हटाने की साजिश के तौर पर भी देखा जा सकता है।.....

Thursday, September 11, 2008

क्रूर खेल का मजा

शेक्सपीयर ने कहा था -'जीवन एक रंगमंच है'। खेल भी जीवन का एक हिस्सा ही है। लेकिन हिंसा सरीखे पाशविक कृत्य को बाजार किस तरह से मुनाफाखोरी के लिए क्रूर मगर हास्यास्पद तरीके एक नकली खेल के रूप में पेश करता है, इसका साक्षात प्रमाण है डब्ल्यूडब्ल्यूएफ और डब्ल्यूडब्ल्यूई। पूरे प्रक्रम में फाइटिंग का रिंग रंगमंच का काम करता है। इस मंच के भीतर रहते हैं दो पात्र खिलाड़ी और सूत्रधार रेफ्री। इस रंगकर्म को मंचित करने के पीछे भी एक नाटक छिपा रहता है। कैमरे का क्लोजअप इस भीतर के नाटक को उघाड़ देता है। मांसपेशियों के गट्ठर से लगते इन पात्र खिलाड़ियों की आक्रामकता देखने लायक होती है। (इसीलिए दिखाते हैं) वे एख दूसरे को घूरते हुए बनावटी क्रोध भरे संवाद बोलते हैं। एक-दूसरे के ऊपर कूदते हैं। एक-दूसरे को पटकते हैं। लात-घूंसे चलाते हैं। उनकी आक्रामकता के अनुपात में दर्शकों के शोर और कमेंटरी में उतार-चढ़ाव आता है। क्लोजअप दिखाता है कि प्लेटफार्म इस तरह का बना है कि पटके गए खिलाड़ी को चोट न लगे। उसे बस दर्द से छटपटाने का अभिनय करना है और कुछ क्षणों बाद यांत्रिक ढंग से खड़े दूसरे पात्र खिलाड़ी को पटकने-धूनने लगना है। पटकने-धूनने का ये प्रक्रम इतना तकनीकी है कि असली लगने लगता है।
स्पेन के बुलफाइटिंग सरीखे नृशंस खेल के बुल यानी सांड की जगह मनुष्य ने ले ली है।
आप इसे कबुतर या मुर्गे लड़वाने की तर्ज का खेल भी कह सकते हैं। अंतर ब यही है कि 'मांसपेशियों के गट्ठर खिलाड़ी' दोनों पात्र खिलाड़ी रिंग रूपी रंगमंच पर यह दंगल बड़ी ही तयशुदा कुशलता के साथ करते हैं। हिंसक होने की वृत्ति को शांत करते हुए, उकसाते हुए। लेकिन अंतत: यह एक ऐसा भोंडा प्रक्रम बनकर रह जाता है जो शुद्ध रूप से मुनाफाखोरी के सिद्धांत पर टिका है।