Friday, September 12, 2008

ओलंपिक: बाजार और राजनीति का मिलजुला खेल

यह सही है कि हिटलर पहला व्यक्ति था, जिसने ओलंपिक खेलों का सीधे-सीधे राजनीतिक इस्तेमाल किया और तब एक अश्वेत धावक जेस्सी ओवंस ने नाजी गुरूर को तोड़ फासिस्ट विचारधारा की कलई ही खोल दी थी। लेकिन इसके बाद से ओलंपिक क्रमश: विभिन्न देशों की राजनीति का हिस्सा बनते चले गए। अब खेलों के बाजारीकरण का दूसरा दौर प्रारंभ हो चुका है। राजनीति और बाजार के गठबंधन ने खेलों को अपने हित साधने का एक औजार मात्र बनाकर रख दिया है। यहां अपने देश में ही कुछ साल पहले क्रिकेट मैच फिक्सिंग प्रकरण के अवसाद में डूबे दर्शकों को दूरदर्शन ने ओलंपिक दिखाने का प्रयास भारतीय खिलाड़ियों को मैडल जीतते हुए दिखाने के लिए नहीं, बाजारीकरण के दबाव में किया। (अगर एक अरब से ज्यादा आबादी का देश मात्र एक सोना, दो कांसा जीतने पर जश्न मनाने लगता है, तो इसलिए नहीं कि हम सिर्फ इस लायक थे और इससे हम खुश हैं, बल्कि इसलिए कि अब भी पोस्टमार्डन युग में हम गुदड़ी के लाल यानी महानायकों की कल्पना करते हैं, और उसकी एक झलक मात्र मिल जाने से करीब-करीब पागल ही हो जाते हैं, मेरी बात मान लीजिए स्विमिंग में आठ गोल्ड जीतने वाले फ्लेप्स को चार साल बाद आंकड़ों में रूची रखने वाले ही याद करेंगे। बाजार दूसरा हीरो दे देगा, क्योंकि ये महानायकों का नहीं टटपूंजीयों का युग है। पिछले कई साल से ओलंपिक ट्रेस कर रहा हूं। मैट बियोंडी, ईयान थोर्पे को आज कौन याद करता है, अमेरिका करता होगा, ठीक उस तरह जैसे हास्यास्पद ढंग से हम ध्यानचंद को याद करते हैं)
इस देश में बड़े बाप का बेटा ही गोल्ड जीत सकता है, वही जो करोड़ों खर्च कर सकता है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर अभिनव पर गर्व है। उसने बिजनेस नहीं किया। करोड़ों लगा सकता था तो अपने शौक पर लगाया, इसलिए हम उस पर गर्व करते हैं। पर मेरे असली हीरो वो हैं जो कांसा जीतकर लाए। वो एक कमरे में बीस-बीस लोगों के साथ रहते थे। न नहाने को था न प्रैक्टिस करने को। फिर भी पागलपन की हद तक खिलाड़ी बने रहे। जीते तो विनम्रता नहीं छोड़ी। पर इन बेचारों की बदकिस्मती ये है कि इन्हें कुछ नहीं मिलेगा। शायद वो इनाम भी जो इनके जीतने पर विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने दिए। इनके नाम रह जाएगी एक याद कि हमने देश का नाम रोशन किया था और हमें इज्जत बख्शी गई थी)
बहररहाल, १८९६ में ऐथेंस में हुए खेलों से आधुनिक ओलंपिक की शुरूआत मानी जाती है। इस पूरे आयोजन के पीछे फ्रांस के कुलिन पियरे द कुबर्ती की विलक्षंण प्रतिभा थी। यह वह समय था जब युरोप गहरी उथल-पुथल से गुजर रहा था। राजनीतिक शक्ति का केंद्र तेजी से ब्रिटेन बनता चला जा रहा था। मलिका विक्टोरिया का कभी न डूबने वाला सूरज धीरे-धीरे तपने लगा था। नेपोलियन के पतन के बाद फ्रांस राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व के लिए छटपटा रहा था। ऐसे में ओलंपिक एक ऐसा सांस्कृतिक आयोजन बना जिसके राजनीतिक प्रभाव दूरगामी सिद्ध हुए। नए नायकों के अभाव में पुराने नायकत्व की स्थापना की गई। यह वास्तविकता के ऊपर मिथक की जीत थी।
इधर इन खेलों पर राजनीति से एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। पिछले दो-तीन दशकों में हैरतअंगेज ढंग से खलों का व्यावसायीकरण हुआ है। खिलाड़ियों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने का प्रयास गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन वास्तविकता इतनी एकांगी नहीं है। बाजीरीकरण ने खेलों को बिकाऊ माल और मुनाफाखोरी का उपक्रम बनाकर रख दिया है। इसमें बाजी वही देश ले जाते हैं जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां विश्व बाजार की ताकत के रूप में खेलों पर अपना प्रभाव ही नहीं डालती बल्कि उन्हें अपनी जरूरत के हिसाब से चलाती भी हैं।
खेलों के बाजारीकरण ने भाड़े के मरजीवड़ों (ग्लैडिएटर्स) की एक ऐसी जमात पैदा कर रही हैं जो क्षणजीवी नायक की गति को प्राप्त होते हैं। हर ओलंपिक में एक नया मालबेचू किस्म का नायक उभरता है और पुराने का नामो-निशान नहीं रहता। बीजिंग ओलंपिक का नायक फ्लेप्स है। अगले ओलंपिक में उसकी तेजी, गति, आक्रामकता को याद भी रखेगा मुझे इसमें शक है। वैश्विक आर्थिक हितों के संरक्षक के रूप में ही मीडिया अपने आकाओे के हितों के अनुरूप ही उत्पाद बेचू नए नायक को उठाता है और पुराने को विस्मृत कर देता है। ( हाय रे गांगुली, सबसे सफल थे अब ईरानी ट्राफी से भी बाहर हो गए हो) लेकिन सवाल ये उठता है कि भाड़े के मरजीवड़ों की छवि किस प्रकार खेल भावना पर की प्रकृति और आचार संहिता पर कुठाराघात करती है। क्या अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताएं खेलों के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति भर हैं या ये ऐसे स्थल हैं जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां मोटे मुनाफे की फसल काटती हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए स्टार खिलाड़ियों, कलाकारों पर पैसा लगाना पसंद करती हैं। उताहरण के लिए हमारे यहां हाकी के बजाय अनधिकृत रूप से क्रिकेट दर्जा लिए हुए है। सो क्रिकेट का स्वरूप बदला गया है। सफेद पोशाकें रंगीन हो चुकी हैं। कंपनियों के लोगो और बिल्ले खिलाड़ियों के कपड़ों, टोपियों से लेकर जूतों तक में चमकते रहते हैं।
पेप्सी और कोका कोला (इनके देश में क्रिकेट नही खेला जाता) ने इन सफल खिलाड़ियों को अनाप-शनाप पैसा और नायकत्व प्रदान किया है। क्यों? जाहिर है इससे उन्हें अपने उत्पादों के दूर-दूर तक प्रचार और बिक्री में आसानी होती है। कुल मिलाकर कहा जाए तो इनका पूरा विज्ञापन तत्व करोड़ों दर्शकों की मानसिकता को एक खास सांचे में ढालकर अपने उत्पादों की बिक्री में इजाफा करना है।
मोटा मुनाफा कमाने के लिए क्या-क्या छल-छद्म अपनाए जाते हैं, यह इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। १९८७ में अपनी मृत्यु तक खेल का समान बनाने वाली प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनी एडिडास के प्रमुख हार्स्ट डैसलर इंटरनैशल स्पोर्ट्स एंड लैजर के भी मालिक थे। इस छोटी कंपनी का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं था। यह कंपनी बड़े-बड़े आयोजन करने वाले संगठनों से बढ़िया संबंध बनाने का माध्यम थी, जो एडिडास के लिए महत्वपूर्ण संपर्कसूत्र थे। यानी खेलों के आयोजनों को अपने पक्ष में करने के लिए इस सेंधमार कंपनी की स्थापना की गई थी। इसी तरह १९८० के मास्को ओलंपिक के अमेरिकी बहिष्कार के पीछे राजनीतिक कारणों के अलावा यह विचार भी था कि इससे पश्चिमी मीडिया की रूची कम होने से सोवियत संघ को स्पष्टत: आर्थिक हानि होगी। लेकिन इसके बावजूद मास्को खेलों के प्रसारण अधिकार करीब ८.७ करोड़ डालर में बिके और विज्ञापनों से होने वाली आय १५ करोड़ डालर आंकी गई। जाहिर है राजनीति बाजार पर हावी नहीं हो सकी।
लेकिन खेलों के बाजारीकरण का उत्कर्ष १९९२ में चोटी पर पहुंचा, जब अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी ने ५० करोड़ डालर के प्रसारण अधिकार की पेशकश को ठुकरा दिया। ये ओलंपिक खेलों की हैसियत और अधिक लाभ कमाने की गुंजाइश को दर्शाता था। ५० करोड़ डालर की पेशकश आखिर कितने व्यापारिक संगठनों को नसीब हो पाती है। मगर ये मौका मिला ओलंपिक कमेटी को, जो कहने को तो खेलों में व्यवसायिकता के खिलाफ है और ओलंपिक के दरवाजे गैरपेशेवर खिलाड़ियों के लिए ही खोलती है, पर स्वयं आकंठ बाजारीकरण में डूब चुकी है।
...इस प्रक्रिया की सहज परिणति १९९६ में हुई जब परंपरा, इतिहास और मिथक के बूते 'शताब्दी आयोजन' के ग्रीस के भावुक दावे को ठुकरा दिया गया। उसकी जगह अमेरिकी शहर अटलांटा के चुनाव ने ओलंपिक खेलों से जुड़े ऊंचे आदर्शों की कलई ही खोल कर रख दी। सिडनी में हुए सबसे विशाल ओलंपिक की ख्याति कम महत्वपूर्ण नहीं रही कि ये उस समय का सबसे कमाऊ ओलंपिक साबित हुआ। एक तरह से ये इस बात का भी प्रतीक बना कि हर ओलंपिक आयोजन के बाद व्यावसायिकता की गिरफ्त खेलों पर बढ़ती ही चली गई।
खेलों के अत्यधिक व्यवसायीकरण ने खिलाड़ियो को अनुचित शोहरत पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को मजबूर कर दिया है। हानिकारक उत्तेजक दवा स्टोरायड्स का सेवन यूं ही नहीं किया जाता। जैसे विश्वसुंदरियों का निर्माण एक भूमंडलीय उद्योग बन चुका है, वैसे ही खिलाड़ियों का उत्पादन इस उद्योग का पुरुष संस्करण है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को महिला खेलों में कोई दिलचस्पी नहीं है। कुछ साल पहले अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका फ्रंटलाइन के मुताबिक खेलों की ८२ फीसदी प्रायोजक कंपनियां महिला खिलाड़ियों मे कोई दिलचस्पी नहीं रखती (जब तक की वो सानिया मिर्जा की तरह आकर्षक यानी सेक्सी न हो, उसका खेल गया भाड़ में)। खेलों की इस राजनीति और बाजारीकरण ने खिलाड़ियों की मानसिकता को भी बदल डाला है। वो एक ऐसे व्याहमोह में पड़ गए हैं जिसे किसी भी हाल में स्वस्थ मानसिकता की निशानी नहीं कहा जा सकता। एक स्तर पर इसे अपराधी मानसिकता कह सकते हैं। इस व्याहमोह की झलक आप पूर्व ब्रिटिश बाडी बिल्डिंग चैंपियन जो वारीक्क में देख सकते हैं। वो लंबे समय से गुर्दे औऱ यकृत के विकारों से पीड़ित है। उसका कहना है कि गौरव के उस क्षण के लिए वो अब भी स्टीरायड्स का सेवन करने से नहीं चुकेंगी। जाहिर है खिलाड़ियों की एक ऐसी जमात पैदा हो रही है जो "बाकायदा बीमार" अमेरिकी धावक फ्लों जिन्होंने सौ मीटर दौड़ में विश्व रिकार्ड कायम किया, मात्र पैंतीस वर्ष में चल बसी। सारी दुनिया जानती है कि उनकी असामयिक मौत का कारण मादक दवाओं के उपयोग से जुड़ा है।
अंत में ट्रैक एंड फील्ड प्रतियोगिताओं से जुड़े एक मिथक की बात कर लेते हैं। अश्वेत खिलाड़ियों के दबदबे को सारी दुनिया चकित होकर देखती है। ऐसे विकसित राष्ट्र भी अश्वेत खिलाड़ियों को उतारते हैं, जहां उनकी संख्या न के बराबर है। इसलिए इन खिलाड़ियों को तुरत-फुरत नागरिकताएं दी जाती है्ं। लेकिन इतने सारे अफ्रीकी देश हैं, वो ओलंपिक पदक तालिका से गायब क्यों रहते हैं। जाहिर है कुपोषण, बीमारी और भुखमरी जैसी समस्याओ से त्रस्त देश अनाप-शनाप पैसा किसी खिलाड़ी पर कैसे खर्च कर सकते हैं?
कुल मिलाकर हम बाजार के युग में जी रहे हैं। कार्पोरेट प्रायजकों, विज्ञापन और मार्केटिंग एजेंसियां और मीडिया जिनका भी पैसा इस खेल में लगा है, वे हर हाल में एक कृत्रिम लेकिन सहज दिखती अनिश्चितता का माहौल पैदा करते हैं। खेल को अधिक उत्तेजक और आक्रामक बनाने के लिए उसके नियमों में बदलाव किए जाते हैं। बाजार सफल नायक को क्षणभंगुर महानायक का दर्जा तो प्रदान करता है, लेकिन उस पर दबाव बनाए रखता है और बदले में अपने साबुन तेल या ठंडे (मीठे पानी) जैसे किसी उत्पाद (देश गया भाड़ में) की खातिर हर हाल मं कुछ रोमांचकारी कर गुजरने को मजबूर करता है। रोनाल्डो अच्छा फुटबाल खेलता है ( कुछ उसे महान कहते हैं) फ्रांस में हुए विश्वकप में जिन कंपनियों ने उस पर पैसा लगाया हुआ था वो चाहती थीं कि बीमारी के बावजूद वो खेले। परिणामस्वरूप रोनाल्डो को बीमार होने के बावजूद खेलना पड़ा और उसके देश की करारी हार हुई। दूसरी ओर दर्शकों में युद्धोन्माद की सी स्थिति पैदा की जाती है और दोनों ओर के दर्शकों को एक ही माल बेचा जाता है। इस प्रकार से निजी स्वार्थों के लिए राजनीति और बाजार अंधराष्ट्रवाद का ऐसा खुमार (हमारे यहां इसे भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट की जंग से जोड़कर देखा जा सकता है) पैदा करते हैं जो खेल भावना की ऐसी की तैसी कर कर रख देते हैं। राजनीति साधने का ये कुछ साल पुराना उपक्रम है और राजनीतिज्ञों में काफी लोकप्रिय है (या वो ऐसा कर पाने की हसरत पाले रहते हैं) इसे जनता का ध्यान बुनियादी समस्याओं से हटाने की साजिश के तौर पर भी देखा जा सकता है।.....

6 comments:

शोभा said...

बहुत अच्छा लिखा है. स्वागत है आपका

شہروز said...

बहुत खूब!आपके तख्लीकी-सर्जनात्मक जज्बे को सलाम.
आप अच्छा काम कर रहे हैं.
फ़ुर्सत मिले तो हमारे भी दिन-रात देख लें...लिंक है:
http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/
http://saajha-sarokaar.blogspot.com/
http://hamzabaan.blogspot.com/

Udan Tashtari said...

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

वर्ड वेरिपिकेशन हटा लें तो टिप्पणी करने में सुविधा होगी. बस एक निवेदन है.

Anonymous said...

मुझे भरोसा है आप उड़न तश्तरी की तरह उड़न छू
नहीं हो जाएंगे।
मजाक कर रहा हूं दोस्त।
मुझे ये सीखा दिजिए कि वर्ल्ड वेरिफिकेशन कैसे हटाते हैं। मैं ब्लाग की दुनिया में दुधमुहे बच्चे की तरह हूं। ज्यादा कुछ नहीं जानता हूं। सिर्फ लिखना जानता हूं औऱ बाकी सीख रहा हूं।
आपका अपना
भास्कर जुयाल

Kavita Vachaknavee said...

नए चिट्ठे का स्वागत है. निरंतरता बनाए रखें.खूब लिखें,अच्छा लिखें.

प्रदीप मानोरिया said...

ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है निरंतरता की चाहत है बहुत सटीक लिखते हैं समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर भी दस्तक दें