Thursday, September 11, 2008

क्रूर खेल का मजा

शेक्सपीयर ने कहा था -'जीवन एक रंगमंच है'। खेल भी जीवन का एक हिस्सा ही है। लेकिन हिंसा सरीखे पाशविक कृत्य को बाजार किस तरह से मुनाफाखोरी के लिए क्रूर मगर हास्यास्पद तरीके एक नकली खेल के रूप में पेश करता है, इसका साक्षात प्रमाण है डब्ल्यूडब्ल्यूएफ और डब्ल्यूडब्ल्यूई। पूरे प्रक्रम में फाइटिंग का रिंग रंगमंच का काम करता है। इस मंच के भीतर रहते हैं दो पात्र खिलाड़ी और सूत्रधार रेफ्री। इस रंगकर्म को मंचित करने के पीछे भी एक नाटक छिपा रहता है। कैमरे का क्लोजअप इस भीतर के नाटक को उघाड़ देता है। मांसपेशियों के गट्ठर से लगते इन पात्र खिलाड़ियों की आक्रामकता देखने लायक होती है। (इसीलिए दिखाते हैं) वे एख दूसरे को घूरते हुए बनावटी क्रोध भरे संवाद बोलते हैं। एक-दूसरे के ऊपर कूदते हैं। एक-दूसरे को पटकते हैं। लात-घूंसे चलाते हैं। उनकी आक्रामकता के अनुपात में दर्शकों के शोर और कमेंटरी में उतार-चढ़ाव आता है। क्लोजअप दिखाता है कि प्लेटफार्म इस तरह का बना है कि पटके गए खिलाड़ी को चोट न लगे। उसे बस दर्द से छटपटाने का अभिनय करना है और कुछ क्षणों बाद यांत्रिक ढंग से खड़े दूसरे पात्र खिलाड़ी को पटकने-धूनने लगना है। पटकने-धूनने का ये प्रक्रम इतना तकनीकी है कि असली लगने लगता है।
स्पेन के बुलफाइटिंग सरीखे नृशंस खेल के बुल यानी सांड की जगह मनुष्य ने ले ली है।
आप इसे कबुतर या मुर्गे लड़वाने की तर्ज का खेल भी कह सकते हैं। अंतर ब यही है कि 'मांसपेशियों के गट्ठर खिलाड़ी' दोनों पात्र खिलाड़ी रिंग रूपी रंगमंच पर यह दंगल बड़ी ही तयशुदा कुशलता के साथ करते हैं। हिंसक होने की वृत्ति को शांत करते हुए, उकसाते हुए। लेकिन अंतत: यह एक ऐसा भोंडा प्रक्रम बनकर रह जाता है जो शुद्ध रूप से मुनाफाखोरी के सिद्धांत पर टिका है।

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