Saturday, September 13, 2008

टीवी, हिंदी, उपभोक्ता और बाजार

सूचना क्रांति कब की हो चुकी। बुद्धू बक्सा अब समझदार हो गया है (हालांकि अभी और समझदार होने की जरूरत है, ये समझदारी का संक्रमण काल है)। टीवी (इसमें हर तरह के चैनल शामिल हैं (अश्लील फिल्में दिखाने वाले चैनल भी) ने सूचना क्रांति में अहम भूमिका निभाई है। हिंदी का खूब प्रचार-प्रसार हुआ है। लेकिन पाठक ये समझ लें कि सबकुछ बाजार से तय होता है। भूरे साहबों की काऊ बेल्ट (इसका अर्थ नहीं लिखना चाहता, मुझे इससे नफरत है) की हिंदी सब पर भारी है। सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग यहीं से उभरा है। इसे नजरअंदाज करने का मतलब घाटा सहना है। तो बाजार ने हिंदी को कमोबेश कुछ ज्यादा अपनाया, लेकिन अपने सबकुछ अपने हिसाब से किया, और हमने ऐसा होने दिया। प्रिंट हो या टीवी कोई भी बाजार को नजरअंदाज नहीं कर सकता। नजरअंदाज करेगा तो उसकी लुटिया डूब जाएगी। वो अंतरराष्ट्रीय से राष्ट्रीय फिर स्थानीय...और फिर गायब हो या गायब होने के कगार पर झूलता रहेगा। मुझे भरोसा है कि आप इसका मतलब समझते हैं।
जानकार बाजार को ऐतिहासिक प्रक्रिया मानते हैं। ये इस बात की स्विकारोक्ती है की बाजार का अस्तित्व पहले भी रहा है और आगे भी रहेगा। पहले पहल व्यापार के साक्ष्य हड़प्पा में मिलते हैं यानी बाजार के भी। लेकिन बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। औद्योगिक क्रांति के बाद से दुनिया करीब आनी शुरू हुई। अब इसका उत्तरकाल चल रहा है। इसकी बहुत स्पष्ट विचारधारा है, जो आक्रामक तीव्रता लिए हुए है। बाजार होगा तो उपभोक्ता और उत्पादक भी होंगे। लेकिन बाजार की सर्वोच्चता व्यक्ति को मात्र उपभोक्ता में बदलने को तैयार है।
भारत में भविष्य का उपभोक्तावादी समाज कैसा होगा, इसके बीज वर्तमान में मौजूद हैं। आजादी से ठीक पहले और बाद का इतिहास इसमें हमारी सहायता कर सकता है। यह तो स्पष्ट ही है कि उपभोक्तावादी समाज में भूमंडलीय नागरिक महत्वपूर्ण होंगे। ये सत्ता-व्यवस्था के संचालक भी होंगे, लेकिन ये नागरिक "वसुधैव कुटुंबकम" का कोई मिथकीय आदर्श नहीं होंगे। भूमंडलीकरण अंतत: हिंदुस्तानियत की भावना को खा जाएगा और क्षेत्रीय अस्मिता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो उठेगा। जवाहरलाल नेहरू के मिश्रित रक्त की संतान होने का आधुनिक आदर्श पिलपिलाने लगेगा। हालांकि समाज में मिश्रित संताने, संबंध बहुत आम होंगे, जो रूढ़ियों का नाश करेंगे। लेकिन इतने आम होंगे कि आने वाली पीढ़ी अपने ग्लोबलपने से ऊबकर बल्कि त्रस्त होकर अंतिम रूप से क्षेत्रियता में अपनी पहचान ढूंढेगी। भूमंडलीय नागरिक होने के बावजूद भारतीय होना कम औऱ गढ़वाली, पंजाबी, बिहारी, कैराली.....होना अधिक महत्व पा जाएगा। इसकी शुरूआत हो चुकी है। लेकिन क्षेत्रियता का संबंध कहीं न कहीं से राष्ट्रवाद से भी जुड़ता है।
उदाहरण के लिए पत्रकार मार्क टुली ने इतिहासवत्ता रवींद्र कुमार के हवाले से अपनी पुस्तक फ्राम राज टू राजीव में लिखा-- "पटेल बातें सैधांतिक और संगठनात्मक तौर पर जवाहरलाल नेहरू की तुलना में गांधी के अधिक करीब थे। लेकिन गांधी ने पूरे विवेक से यह महसूस किया कि उनका उत्तराधिकारी होने के लिे केवल यही आवश्यक शर्त नहीं है। भारत का कोई भी नेता केवल एक वर्ग का नेतृत्व नहीं कर सकता। खेतिहर वर्ग के साथ अंतरंगता स्थापित होना ही आवश्यक शर्त नहीं है। हमारे समाज के दूसरे वर्गों में भी जवाहर के संपर्क थे। उदाहरण के लिए बीस औऱ तीस के दशक की युवा पीढ़ी और बुद्दिजीवी वर्ग के साथ उनके विशिष्ट संबंध थे। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अगर कोई नेता किसी एख क्षेत्र विशेष से निकट संबंध रखता है तो वह अखिल भारतीय नेता नहीं हो सकता। जवाहर लाल एक ऐसी पृष्ठभूमि से आए थे, जिसकी जड़ें एक क्षेत्र विशेष में न होकर पूरे देश से संबंधित थी।"
हमारे यहां मोहभंग का एक लंबा दौर रहा है। यह समय गांधी के विवेक और जवाहर के आदर्श के अंतिम रूप से रद्द होने का है, या कहें कि पटेल का आदर्श वापस लौटा है। इसका संबंध राष्ट्रवाद और क्षेत्रीयता से है।
भारतीय मूल्य, परंपरा और नैतिकता नए अर्थों में उदघाटित होंगे, लेकिन इस देश में जिसके पास समृद्ध परंपरा और इतिहास है, ग्लोबीकरण की संताने परंपरा और इतिहास से रहित होंगी। ये अजीब सी विसंगति है, लेकिन ये न भूलें कि भूमंडलीकरण का आदर्श वह देश है जिसका अपना कोई इतिहास नहीं है। यह पीढ़ी पुराने मध्यवर्ग की जगह लेगी। इसमें बहुस्तरीय समाज को समझने की कुव्वत नहीं है। क्योंकि जो पीढ़ी उभरकर सामने आ रही है, आजादी या उसके फौरन बाद का समय उसकी स्मृति का अंग नहीं है। एक मायने में यह अच्छी बात इसलिए है कि इसे कोई हैंगओवर (पूर्वाग्रह) भी नहीं है। लेकिन यह पीढ़ी लोकतांत्रिक मूल्यों को कितना आगे बढ़ा पाएगी कहना मुश्किल है। इसकी स्मृति में इमरजेंसी के कटु अनुभव भी नहीं हैं। यह पीढ़ी इस बोध से वंचित है कि जे.पी. के आंदोलन में बिखरी हुई स्थानीय शक्तियां एक महान उद्देश्य को लेकर कुछ समय के लिए एक हुईं थी औऱ फिर बिखर गई। तब परिस्थिति कठिन थी, आज जटिल भी है।
यह अकारण नहीं है कि बाजारवाद, उपभोक्तावाद, भूमंडलीकरण औऱ अंधराष्ट्रवाद कि प्रक्रिया में लगभग एक साथ तेजी आई। लेकिन इसके बरक्स एक धारा औऱ है, जिसकी शुरूआत ऐन प्रारंभ से रही है। फिलहाल यह धारा भी एक प्रवृत्ति के रूप में सामने है औऱ विभ्रम का शिकार है। दोनों प्रवृत्तियां साहित्य में अधिक स्पष्टता से प्रतिबिंबित हो रही हैं। आगे चलकर उपभोक्तावाद विरोधी साहित्य तकनीक सचेत भी होगा और बाजार के अंतर्विरोधों को उघाड़ कर रख देगा। लेकिन अब तक का विमर्श एकालाप की तरह एकायामी है। बाजार के समर्थकों का भी औऱ इसके विरोधियों का भी। एक ध्रुविय विश्व की शक्ति कहीं और है औऱ वही चीजों का होना या न होना तय करेगी या कर रही है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि विश्व सरकार सरीखा कोरा आध्यात्मिक स्वपन पूरा होगा। बाजार में नई ताकतें उभरेंगी और विकेंद्रीकरण और बढ़ेगा। लेकिन सभी एक ही सत्ता द्वारा संचालित होने का दबाव महसूस करेंगे।
कुल मिलाकर एक ऐसा उपभोक्तावादी समाज होगा, जिसमें ग्लोबीकरण के प्रभाव समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार तक में साफ दिखेंगे। संबंधो को तोड़ना, छोड़ना या फिर नया जोड़ना औऱ फिर वही क्रम व्यवहारिक माना जाएगा। इस तरह संबंधों की अंतिम परिणति अकेला होने में होगी। मगर यह अकेलापन पुराने आधुनिकतावाद से जुदा होगा। तो लिजलिजी किस्म की भावुकता जो संबंधों के लिए एक दलदल रचती है उसका भी सफाया होगा। व्यक्ति अंतत: तंग आकर पूछेगा - मेरी पहचान क्या है? यही उपभोक्तावाद पर पहली चोट होगी। लेकिन संबंधों की लगभग सारी जटिलताएं मध्यवर्ग और उससे ऊपर के वर्ग के साथ होंगी। उनके प्रभाव से निम्नवर्ग नाहक ही त्रस्त होगा। लेकिन ये जटिलताएं इस तबके के साथ इतनी नहीं होंगी। दोनों वर्गों के बीच खाई इतनी चौड़ी होगी कि निर्णायक संघर्ष की स्थिति बन जाएगी। जो इस जटिलता को समझेगा वह समाज को सही दिशा देगा या अपना स्वार्थ साधेगा।
स्त्री देह प्रमुख उत्पाद है और होगी। समस्त उत्पादों को बेच लेने की तरकीब भी। लेकिन स्त्रीवादी विमर्श भीतर ही भीतर दो फाड़ होगा, क्योंकि मर्दवादी डिस्कोर्स बाजार में स्त्री देह के दोहन को स्त्री स्वातंत्रय के रूप में बकायदा एकाधिकार की तरह बरतेगा।
विशिष्ट अर्थों में हमारे यहां विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया मात्र उत्तर आधुनिक न होकर आधुनिक ही है और स्थानियतावाद की जड़ें काफी गहरे पीछे की ओर जाती हैं। इसे स्वतंत्रता के बाद के भारत के नक्शे में पा सकते हैं। मार्क टुली ने लिखा है - "यद्धपि नेहूरू ने केंद्राभिमुखी झुकाव को बनाए रखने पर बल दिया, लेकिन भाषा के मुद्दे पर उन्होंने राज्यों की ओर से पड़ने वाले दबाव के आगे घुटने टेक दिए। वे ब्रिटिश तंत्र द्वारा छोड़ी गई राज्यों की सीमाओं को बदलने के इच्छुक नहीं थे, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि इससे मुसीबतों का पिटारा खुल सकता है। लेकिन जब एक राजनीतिज्ञ ने मद्रास में नए राज्य की मांग करते हुए, जिसमें तेलगू राज भाषा हो, आमरण अनशन शुरू किया, तो नेहरू ने आत्मसमर्पण कर दिया और भाषा के आधार पर परिभाषित राज्य के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। "
नेहरू से अपने विमर्श को लेकर मोरारजी देसाई ने बताया - "मैंने पंडित नेहरू से कहा था कि वे बड़ी भारी गलती कर रहे हैं....क्योंकि यह बहुत विशाल देश है और विभिन्न भाषाओं, धर्मों वगैरहा के बावजूद इसे एख राष्ट्र के तौर पर जाना जाता है। भाषावाद मतांधता को जन्म देता है, जो ठीक नहीं है। अगर एक साझी भाषा ठीक से हो गई होती तो कोई दिक्कत नहीं थी.....वे शुरू से ही हिंदी को लेकर गंभीर नहीं थे। जवाहरलाल स्वयं अंग्रेजी के समर्थक थे, इसलिए वे कर भी क्या सकते थे?
उनकी पूरी ट्रेनिंग इंग्लैंड में हुई, नौ वर्ष की उम्र से वे इंग्लैंड में पढ़े। उनके पिता मोतीलाल नेहरू भारतीय के बजाय अंग्रेज ज्यादा थे; और कहा जाता है कि उनके कपड़े पेरिस से धुलकर आते थे।"
दबाव के आगे झुके रहने या सम्मोहित रहने की अच्छी खासी संस्कृति विकसित हो चुकी है। फिलहाल तो संक्रमण का दौर है। स्वयं से यही कह सकते हैं - "इब्तिदाए इश्क में रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या।"

1 comment:

खुली किताब said...

बढ़िया लिखा है आपने। बिलकुल सही लिखा।